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उपासकाध्ययन पर्यासमये समायातं सकलमेतत्सुरसैन्यम्' इति धृतधिषणे पौरजनान्त:करणे सति स भगवान्गगनगमनानीकैः साकमौर्विलानिलये निलीये सावष्टम्भमेष्टाहीमथुरायां चक्रचरणं परिभ्रमय्याहत्प्रतिबिम्बाङ्कितमेकं स्तूपं तत्रातिष्ठिपत्। अत एवाद्यापि तत्तीर्थ देवनिर्मिताख्यया प्रथते । बुद्धदासी दासीवासीद्ममनोरथा । भवति चात्र श्लोकः
ऊर्विलाया महादेव्याः पृतिकस्य महीभुजः। स्यन्दनं भ्रमयामास मुनिर्वजकुमारकः ॥२११॥
इत्युपासकाध्ययने प्रभावनविभावनो नामाष्टादशः कल्पः। अर्थित्वं भक्तिसंपत्तिः प्रयुक्तिः [प्रियोक्तिः] सत्क्रियाविधिः। सधर्मसु च सौचित्यकृतिर्वत्सलता मता ॥२१२।। स्वाध्याये संयमे सङ्के गुरौ सब्रह्मचारिणि।। यथौचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम् ॥२१३॥ आधिव्याधिनिरुद्धस्य निरवद्येन कर्मणा ।
सौचित्यकरणं प्रोक्तं वैयावृत्यं विमुक्तये ॥२१४॥ मथुरा नगरीमें आकाशसे नीचे उतरते हुए इन विद्याधरोंको देखकर पुरवासी जनोंने समझा कि 'बुद्धदासी बड़ी पुण्यात्मा है उसीकी बुद्धपूजामें सम्मिलित होनेके लिए यह सब देवगण आये हैं। किन्तु वज्रकुमार मुनि विद्याधरोंकी इस सेनाके साथ ऊर्विला रानीके महलमें उतरे और उन्होंने अष्टाहिका-पर्वमें मथुरामें रथयात्रा कराकर जिन-विम्बसे सुशोभित एक स्तूपकी वहाँ स्थापना की। इसीसे आज भी वह तीर्थ 'देवनिर्मित' कहा जाता है। यह सब देखकर बुद्धदासीका मनोरथ भग्न हो गया।
इस विषयमें एक श्लोक है । जिसका भाव इस प्रकार है
वज्रकुमार मुनिने राजा पूतिककी रानी महादेवी ऊर्विलाके रथका विहार कराया ॥२११॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में प्रभावना अंगका वर्णन करनेवाला अठारहवाँ कल्प समाप्त हुआ। [अब वात्सल्य अंगको कहते हैं-]
धर्मात्मा पुरुषोंके प्रति उदार होना, उनकी भक्ति करना, मिष्ट वचन बोलना, आदर सत्कार तथा अन्य उचित क्रियाएँ करना वात्सल्य है ॥२१२॥
स्वाध्याय, संयम, संघ, गुरु और सहाध्यायीका यथायोग्य आदर-सत्कार करनेको कृती पुरुष विनय कहते हैं ॥२१३॥
जो मानसिक या शारीरिक पीड़ासे पीड़ित हैं, निर्दोष विधिसे उनकी सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य कहा जाता है । यह वैयावृत्य मुक्तिका कारण है ॥२१४॥
१. अवतीर्य । २. अष्टाह्नी उपलक्षितायाम् । ३. रथम् । ४ प्रकाशते। ५. सौमनस्यम् । 'आदृतिावतिर्भक्तिश्चाटूक्तिः सत्कृतिः कृतिः । सधर्मसु च सौचित्तीकृतिर्वात्सल्यमुच्यते-।' धर्मरत्ना० प०७३ उ० । 'भक्तिसंपत्तिरथित्वमिष्टोक्तिः सत्क्रियाविधिः । स्वधर्मस्वक्षिसौचित्तीकृतिर्वात्सल्यमचिरे ॥३॥ -दानशासन, पृ० २७५। ६. समानशीले। 'स्वाध्याये संयमे धर्मे मुनो वा धर्मबान्धवे । प्रतिपत्तिस्त्रिधा प्राहुविनयं विनयान्विताः ॥५४॥ व्याध्यादिना निरुद्धस्य निरवद्यो विधिमहान । विधेयो धर्मताधारैरोषधाद्यः स्ववस्तुभिः ॥५५॥-प्रबोधसार