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श्रूयतामत्रोपाख्यानम् — श्रवन्तिविषयेषु सुधोन्धः सौधस्पर्द्धिशालायां विशालायां पुरि प्रभावती महादेवीश्रितशर्मसीमा जयवर्मनामा काश्यपीश्वरः शाक्यवाक्यवारिधिविक्रान्तिनक्रेण शुक्रेण चार्वाकलोकदिवंस्पतिना बृहस्पतिना रुद्रमुद्रानुद्रितविवेकेन प्रह्लादकेन चानुजेनानुगतेन वेदविद्याबलिना बलिना सचिवेन चिन्त्यमानराज्यस्थितिरेकदा समस्तशास्त्राभ्यासवर्षविस्फारितसरस्वतीतरङ्गपरम्पराप्लावनपवित्रितविनेयजनमनोनलिन निकुरुम्बस्य परमतपश्चरणगणग्रहणाजिह्मब्रह्मस्तम्बस्य महामुनिपञ्चशतीवर्यस्य भगवतोऽकम्पनाचार्यस्य महर्द्धिजुषः सर्वजनानन्दनं नाम नगरोपवनमधितस्थुषश्चरणार्चनोपचाराय राजमार्गेषु महोत्सवोत्साहो" त्सेकिपरिजनं पौरजनमभ्रंलिहगेहाप्रभागावसरे दिग्विलोकानन्दमन्दिरे स्थितः समवलोक्य 'कोऽयमकाण्डे प्रचण्डः पौराणामुद्यावद्योगे नियोगः' इति वितर्कयन्, 'सकलसमयसंभविप्रसूनस्तिमितहस्तपल्लवान्तरालाद्वनपालात् 'देव, भवद्दर्शनोत्सुकवनदेवता लोचने भगवत्तपःप्रभावप्रवृत्त समस्ततून्मादितमेदिनीनन्दनै' निजलक्ष्मीविलक्ष्यीकृतगन्धमादने पुरोपवने सद्गुश्रीसंपादित समूहेन" महता मुनिसमूहेन सर्वसत्त्वानन्दप्रदानोदाराभिधासुधा प्रबन्धावधीरितामृते मरीचिमण्डलो निखिलदिक्पालमौलिमणिनायक मुकुरैन्दीभवत्पादनखमण्डलः पुण्यद्विपयूथबन्धनवारिरकम्पनसूरिः समायातः । तदुपासनाय चास्योजयिनीजनस्य महामहावहश्चित्तोत्साहः' इत्याकर्ण्य प्रतूर्णमेतत्पादवन्दनोद्यत हृदयस्तत्र गमनाय तं मिथ्यात्वप्रबलतालताश्रयकें लि बलिमपृच्छत् ।
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उपासकाध्ययन
८ वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध विष्णुकुमार मुनिकी कथा
इसके विषयमें एक कथा है उसे सुनें
अवन्ति देशकी विशाला नगरीमें जयवर्म नामक राजा राज्य करता था । उसके चार मंत्री थे शुक्र, बृहस्पति, प्रह्लाद और बलि । शुक्र बौद्ध शास्त्रमें निष्णात था, बृहस्पति चार्वाक दर्शन में बृहस्पतिके तुल्य था, प्रह्लाद शैव था और बलि वेदविद्या में पारंगत था ।
एक बार समस्त शास्त्रोंमें पारंगत और परम तपस्वी अकम्पनाचार्य पाँच सौ मुनियोंके संघके साथ सर्वजनानन्दन नामके उपवनमें आकर ठहरे । अपने आकाशचुम्बी महलके ऊपर से आचार्यकी चरण पूजाके लिए बड़े उत्साह के साथ राजमार्गसे जाते हुए पुरवासियों को देखकर राजा विचारने लगा - असमय में ये पुरवासी उद्यानकी ओर क्यों जाते हैं ?
इतनेमें ही सब ऋतुओं के फल-फूल हाथमें लेकर वनपाल उपस्थित हुआ और बोला'स्वामी ! नगरके उपवनमें बड़े भारी मुनि संघ के साथ सब जीवोंको आनन्द देनेवाले, अपने अमृत मय वचनोंकी वर्षासे चन्द्रमाको भी तिरस्कृत करनेवाले अकम्पनाचार्य गुरु पधारे हैं । उनके तपके प्रभावसे आई हुई समस्त ऋतुओंने उपवनको पृथिवीका नन्दनवन बना दिया है । उनकी उपासना के लिए उज्जैनीवासियों का उत्साह उमड़ पड़ा है ।'
यह सुनकर राजाका मन उनके चरणोंकी वन्दना करनेके लिए आतुर हो उठा । राजाने
१. अमृतभोजना देवाः । २. उज्जयिन्याम् । ३. इन्द्रेण । ४. - णमण - ज० द० । ५ त्रिभुवनस्य । ६. स्थितवतः । ७. गर्वित । ८. उत्सव । ९. षऋतु । १०. वृक्षे । ११. सम्पादितः सम्यगूहो विचारो येन । १२. चन्द्रः । १६. दर्पण । ४४. महापूजाकारकः । १५. विभीतकवृक्षम् ।