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सोमदेव विरचित [कल्प १६, श्लो० २१५जिने जिनागमे सूरौ तपःश्रुतपरायणे । सद्भावशुद्धिसंपन्नोऽनुरागो भक्तिरुच्यते ॥२१॥ चातुर्वर्ण्यस्य संघस्य यथायोग्यं प्रमोदवान् । वात्सल्यं यस्तु नो कुर्यात्स भवेत्समयी कथम् ॥२१६॥ तेद्वतैर्विद्यया वित्तैः शारीरैः श्रीमदोश्रयैः ।
त्रिविधातङ्कसंप्राप्तानुपकुर्वन्तु संयतान् ॥२१७।। जिन-भगवान्में, जिन-भगवान्के द्वारा कहे हुए शास्त्रमें, आचार्यमें और तप और स्वाध्यायमें लीन मुनि आदिमें विशुद्ध भावपूर्वक जो अनुराग होता है उसे भक्ति कहते हैं ॥२१५॥
जो हर्षित होकर चार प्रकारके संघमें यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ॥२१६॥
इसलिए व्रतोंके द्वारा, विद्याके द्वारा, धनके द्वारा, शरीरके द्वारा और सम्पन्न साधनोंके द्वारा शारीरिक मानसिक और आगन्तुक रोगोंसे पीड़ित संयमीजनोंका उपकार करना चाहिए ॥२१७॥
भावार्थ-जिस प्रकार एक सच्चा हितैषी भृत्य अपने स्वामीके कार्यके लिए सदा तैयार रहता है वैसे ही धर्मके कार्योंको करनेमें सदा तैयार रहना, धर्मके अंगोंकी रक्षाके लिए अपनी जान तक लगा देना वात्सल्य है। सम्यग्दृष्टिको वात्सल्यसे परिपूर्ण होना चाहिए। किसी भी धर्मायतनपर विपत्ति आनेपर उसे तन, मन और धन लगाकर दूर करना चाहिए । हम धर्मसे तो प्रेम करें और धर्मके जो अंग हैं-जिनबिम्ब, जिनमन्दिर, जिनागम, जैन साधु, गृहस्थ वगैरह, उनके प्रति उदासीन बने रहें, तो हमारा वह धर्म-प्रेम आखिर है क्या वस्तु ? जब धर्मके अंग ही नहीं रहेंगे तो धर्म ही कैसे रह सकता है ? जैसे शरीरक्की स्थिति उसके अंगों और उपांगोंकी स्थितिपर निर्भर है वैसे ही धर्मकी स्थिति उसके उक्त अंगोंके आश्रित है । अतः धर्म-प्रेमीका यह कर्तव्य है कि वह धर्मके अंगोंसे प्रेम करे-उनके ऊपर कोई विपत्ति आई हो तो उसे प्राणपणसे दूर करनेकी चेष्टा करे। इसीसे वात्सल्य अंगका वर्णन करते हुए श्री पञ्चाध्यायीके कर्ताने लिखा है कि जिनविम्ब जिनालय वगैरहमेंसे किसीके उपर भी घोर संकट आनेपर बुद्धिमान् सम्यग्दृष्टि सदा उसे दूर करनेके लिए तत्पर रहता है और जब तक उनमें आत्मबल रहता है, मन्त्र, तलवार और धनका बल रहता है तब तक उस संकटको न वह सुन ही सकता है और न देख ही सकता है ।' आज इस प्रकारका वात्सल्य देखने में नहीं आता। साधर्मी भाई मुसीबतमें पड़े रहते हैं और हम देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। साधु त्यागियोंके कप्टोंकी
ओर हमारा कोई ध्यान नहीं है। अपने ही भाइयोंकी कन्याके विवाहके अवसरपर हम उससे हजारोंका दहेज माँगते हैं। कोई गरीब निराश्रय हो तो उसकी सहायता करनेकी भावना हममें नहीं होती। उनका दुःख देखकर हमारा हृदय द्रवित हो भी जाये तो भी हम उनकी सहायता नहीं करते। मौखिक सहानुभूति मात्र प्रकट करके चुप हो जाते हैं। इस तरहकी बेरुखाईसे धर्मकी स्थिति कभी भी नहीं रह सकती। अतः जो सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा है वह सबकी यथायोग्य सेवा-शुश्रूषा करके, अपने हृदयकी भक्तिको प्रकट करता है और इस तरह वात्सल्य अंगका पालन करके अपना और दूसरोंका महान् उपकार करता है।
१. व्रतदानेन उपकारं कुर्वन्तु । २. उत्तमस्थानैः । ३. शारीरमानसागन्तुक ।