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सोमदेव विरचित [कल्प ६, श्लो० -१६७ स्वस्यैव हि स दोषोऽयं यन्न शक्तः श्रुताश्रयम् । शीलमाश्रयितुं जन्तुस्तदर्थ वा निबोधितुम् ॥१६७॥ स्वतःशुद्धमपि व्योम वीक्षते यन्मलीमसम् । नासौ दोषोऽस्य किं तु स्यात्स दोषश्चक्षुराश्रयः ॥१६८॥ दर्शनाइहदोषस्य यस्तत्त्वाय जुगुप्सते । स लोहे कालिकालोकानूनं मुञ्चति काञ्चनम् ॥१६६॥ स्वस्यान्यस्य च कायोऽयं बहिश्छायामनोहरः। - अन्तर्विचार्यमाणः स्यादौदुम्बरफलोपमः ॥१७०।। तदैतिहह्ये च देहे च याथात्म्यं पश्यतां सताम् । .
उद्वेगाय कथं नाम चित्तवृत्तिःप्रवर्तताम् ॥१७॥ श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-मतिश्रुतावधिबोधमार्गत्रयप्रवृत्तमतिमन्दाकिनीसान्द्रः सौधमन्द्रः किल सकलसुरसेवासभावसरसमये सम्यक्त्वरत्नगुणान्गीर्वाणानुग्रहायोदाहरनिदानीहैं।' इस प्रकार चित्तमें सोचना विचिकित्सा कहाता है। शास्त्रमें कहे गये शीलको पालने अथवा उसका आशय समझने में जो जीव असमर्थ है सो यह उसीका दोष है। स्वतः शुद्ध आकाश भी जो मलिन दिखाई देता है सो यह आकाशका दोष नहीं है किन्तु देखनेवालेकी आँखोंका दोष है ॥ जो मनुष्य शरीरमें दोष देखकर उसके अन्दर बसनेवाली आत्मासे ग्लानि करता है, वह लोहेकी का लिमाको देखकर निश्चय ही सोनेको छोड़ता है। अर्थात् जैसे लोहेकी कालिमाका सोनेसे कोई सम्बन्ध नहीं है वैसे ही शरीरकी गन्दगीका आत्माके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अतः शरीरके गन्देपनको देखकर तपस्वी साधुकी आत्मासे घृणा नहीं करनी चाहिए ॥ अपना शरीर हो या दूसरेका, वह बाहरसे ही मनोहर लगता है। उसके अन्दरकी हालतका विचार करनेपर तो वह उदुम्बरके फलके समान ही है । अतः इस परम्परागत उपदेश तथा इस शरीरके वास्तविक स्वरूपको जाननेवाले सज्जनोंकी चित्तवृत्ति ( शरीरकी गन्दगीको देखकर ) कैसे व्याकुल हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती ॥१६६-१७१॥
भावार्थ-रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें निर्विचिकित्साका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि यह शरीर स्वभावसे ही गन्दा है, किन्तु यदि उसमें रत्नत्रयसे पवित्र आत्माका वास है तो शरीरसे ग्लानि न करके उस आत्माके गुणोंसे प्रीति करनेको निर्विचिकित्सा अंग कहते हैं। प्रायः ऐसा देखा जाता है कि दुर्भाग्यसे पीड़ित मनुष्योंको देखकर सुखी मनुष्योंके चित्तमें यह भावना आ जाती है कि हम श्रीमान् हैं और यह बेचारा विपत्तिका मारा हुआ दीन-हीन प्राणी है, यह भला हमारे बराबर कैसे हो सकता है। इस प्रकारका अहंकार केवल अज्ञान मूलक है वास्तवमें कर्मोके बन्धनमें पड़े हुए सभी प्राणी समान हैं। अतः जो कर्मोंके शुभोदयसे फूलकर कोंके अशुभोदयसे पीड़ित प्राणियोंसे घृणा करते हैं और शास्त्रमें प्रतिपादित जप-तप-नियमादिकको कष्टदायक जानकर उसे वृथा समझते हैं तथा तपस्वियोंके मैले शरीरको देखकर उनकी निन्दा करते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं-उनकी दृष्टि ठीक नहीं है। और जो वैसा नहीं करते, वे ही सम्यग्दृष्टि हैं ।
३ निर्विचिकित्सा अंगमें प्रसिद्ध उद्दायन राजा की कथा इस सम्बन्धमें एक कथा है, उसे सुनिए१. शोला) आचरणप्रयोजनं ज्ञातुमसमर्थो वा । २. नभसः । ३. नेत्रस्य संबन्धो ।