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सोमदेव विरचित [कल्प १०, श्लो० १७६तत्संस्तवं प्रशंसां वा न कुर्वीत कुदृष्टिषु ।
ज्ञानविज्ञानयोस्तेषां विपश्चिन्न च विभ्रमेत् ॥१७॥ __ श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-मुक्ताफलमञ्जरीविराजितविलासिनीकर्णकुण्डलेषु पाण्डयमण्डलेषु पौरपुण्याचारविदूरितविथुरायां दक्षिणमथुरायामशेषश्रुतपारावारपारगमवधिवोधाम्बुधिमध्यसाधितसकलभुवनभागम् , अष्टाङ्गमहानिमित्तसंपत्तिसमधिकधिषणाधिकरणम् , अखिलश्रमणसंघसिंहोपास्यमानचरणम् अत्याश्चर्यतपश्चरणगोचराचारचातुरीचमत्कृतचित्तखचरेश्वरविरचितचरणार्चनोपचारं श्रीमुनिगुप्तनामव्याहारं भदन्तं भगवन्तं गगनगैमनाङ्गनापाङ्गामृतसारणीसंबन्धवीधस्य विजयार्धमेदिनीधस्य रतिकेलिविलासविगलितनिलिम्पललनामेखलामणौ दक्षिणश्रेणी मेघकूटपट्टनाधिपत्योपान्तः सुमतिसीमन्तिनीकान्तः संसारसुखपराङ्मुखप्रतिभश्चन्द्रशेखराय सुताय निजैश्वर्य वितीर्य पर्यवसितदेशयतिरूपः सकलाम्बरचरविद्यापरिग्रहसमीपः सप्रश्रयमभिवन्द्यानवद्यविद्यामहन् भगवन् , पौराङ्गनाशृङ्गारोत्तरङ्गापाङ्गपुनरुक्तस्मरशरायामुत्तरमथुरायां जिनेन्द्रमन्दिरवन्दारुहृदयदोहदवर्ती वर्तेऽहम् । अतस्तन्नगरीगमनाय तत्र भगवता भगवतानुज्ञातव्योऽस्मि । किं च कस्य तस्यां पुरि कथयितव्यमित्यपृच्छत् । सकती। जैसे विजातियोंमें कुलीन सन्तानकी प्राप्ति नहीं होती ॥ इसलिए मिथ्यादृष्टियोंकी मनसे प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और न वचनसे स्तुति.करनी चाहिए । तथा समझदार मनुष्योंको उनके ज्ञानादिकको देखकर भ्रममें नहीं पड़ना चाहिए ॥१७८-१७९॥
___ भावार्थ-अतत्त्वको तत्त्व मानना, खोटे गुरुको गुरु मानना, कुदेवको देव मानना और अधर्मको धर्म मानना मूढता है। और जो इस प्रकारकी मूढता नहीं करता वह अमूढ़दृष्टि अङ्गवाला कहा जाता है । कुछ लोगोंका यह भाव रहता है कि लौकिक कल्याणके लिए कुदेवोंकी आराधना करनी चाहिए। किन्तु यह सब लोकमूढ़ता है। इस प्रकारकी मूढता सम्यग्दृष्टिको शोभा नहीं देती।
४ अमृढदृष्टि अंगमें प्रसिद्ध रेवती रानी की कथा इस विषयमें एक कथा हैं, उसे सुनें
पाण्ड्य देशको दक्षिण मथुरा नगरीमें श्री मुनिगुप्ताचार्य विराजमान थे। वे समस्त श्रुत समुद्रके पारगामी थे, उनके अवधिज्ञान रूपी समुद्रके मध्यमें समस्त भुवनके भाग वर्तमान थे, वे अष्टांगमहानिमित्तके ज्ञाता थे, समस्त मुनिसंघ उनके चरणोंकी उपासना करता था। उनके आश्चर्यकारी तपश्चरणको देखकर विद्याधरोंके स्वामियों के चित्त भी आश्चर्यचकित हो गये थे और वे उनके चरणों की पूजा करते थे।
विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिके मेघकूट नामक नगरका राजा संसारके सुखसे विमुख होकर, अपने पुत्र चन्द्रशेखरको अपना राज्य देकर विरक्त हो गया । और मुनि गुप्ताचार्यके समीपमें उसने देशचारित्र धारण कर लिया । साथ ही परोपकार और वन्दना वगैरहके लिए उसने कुछ विद्याएँ भी अपने पास रक्खीं।।
एक दिन मुनिगुप्ताचार्यके पास जाकर वह बोला-"भगवन् , मैं उत्तर मथुराके जिनालयोंकी ___१. राक्षस । २. समुद्र । ३. अष्टाङ्गमहानिमित्तानि अन्तरिक्षभौमस्वरव्यञ्जनलक्षणछिन्नभिन्नस्वप्नाः । ४. विद्याधर । ५. देवाङ्गना ।