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सोमदेव विरचित [कल्प ११, श्लो० १८८__श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-सुराष्ट्रदेशेषु मृगेक्षणापदमलमूलावलोकितापहसितानङ्गास्त्रतन्त्रे पाटलिपुत्र सुसीमाकामिनीमकरध्वजस्य यशोध्वजस्य भूभुजः पराक्रमाक्रमाक्रान्तसकलप्रवीरः सुवीरो नाम सूनुरनासादितविद्यावृद्धसंयोगसमयत्वाद्विटविदूषकदूषितहृदयत्वाच्च प्रायेण परद्रविणदारादानोदारक्रियः क्रीडार्थमेकदा क्रीडावने गतः कितवकिरातपेश्यतोहरवीरपरिषदमिदमवादीत्–'अहो, विक्रमैकरसिकेषु महासाहसिकेषु भवत्सु मध्ये किं कोऽपि मे प्रार्थनातिथिमनोरथसारथिरस्ति, यः खलु पूर्वदेशनिवेशावाप्तकीर्तने तामलिप्तिपत्तने पुण्यपुरुषकाराभ्यामात्मसात्कृतरत्नाकरसारस्य जिनेन्द्रभक्तनामावतारस्य वणिक्पतेः सप्ततलागाराग्रिमभूमिभागिनि जिनसमनि छत्रत्रयशिखण्डमण्डनीभूतमद्भुतद्योतसेनोडं वैडूर्यमणिमानयति, तदानेतुः पुनरभिलाषविषयनिषेकमेव पारितोषिकम् ।
तत्र च सदर्पः सूर्पो नाम समस्तमलिम्लुचाग्रेसरो वीरः किलैवमलापीत्-'देव, कियद्गहनमेतद्यतो योऽहं देवप्रसादाद्वियदवसानविरचितामरावतीपुरस्य पुरंदरस्यापि चूडालंकारनूतनं रत्नं पातालमूलनिलीनभोगवतीनगरस्योरगेश्वरस्यापि फणगुम्फनाधिक्यं माणिक्यमपहरामि, तस्य मे मनुष्यमात्रपरित्राणधरणिमणि लोचनगोचरागारविहारमपहरतः कियन्मात्रं महासाहसम् इति शौर्य गर्जित्वा निर्गत्यागत्य च गौडमण्डलमपरमुपायमप
दोषके कारण किसी धर्मात्माकी अवज्ञा और निन्दा न करके उस दोषको छिपाना तो उचित ही है । किन्तु यदि धर्मका वेष धारण करके कोई ढोंगी जानबूझकर अनाचार करता हो और समझानेपर भी न मानता हो तो ऐसे ढोगियोंके दोषोंको छिपाना उपगूहन अंग नहीं है।
५. उपगहन अंगमें प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्तकी कथा इस अंगके विषयमें एक कथा है उसे सुनें
सुराष्ट्र देशके पाटलीपुत्र नगरका राजा यशोध्वज था। उसके वड़ा पराक्रमी सुवीर नामका पुत्र था। विद्यावृद्ध सज्जनोंका समागम न मिलने तथा विलासी और बदमाशोंकी संगतिमें पड़ जानेसे वह परधन और परस्त्रीका लम्पट हो गया था।
___ एक बार क्रीड़ा करनेके लिए वह क्रीडावनमें गया। वहाँ एकत्र हुए ठग, चोर और भीलोंकी परिषदसे वह बोला-'आप लोग बड़े पराक्रमी और बड़े साहसी हैं। आपमें से जो कोई तामलिप्ति नगरमें अपने पुण्य और पौरुषसे समुद्रकी सारभूत सम्पत्तिको उपार्जित करनेवाले जिनेन्द्रभक्त सेठके सतमंजिले महलके ऊपर बने हुए जिनालयमेंसे तीन छत्रोंकी चोटीमें जड़ी हुई अद्भुत कान्तिवाली वैडूर्यमणिको चुरा लायेगा उसे उसकी इच्छानुसार पारितोषिक दिया जायेगा।
___ यह सुनकर समस्त चोरोंका मुखिया सूर्प बड़े गर्वसे बोला-'स्वामी यह क्या कठिन है ? जो मैं आपकी कृपासे आकाशके अन्तमें बनी हुई अमरावती नगरीके स्वामी इन्द्र के मुकुटमें लगे हुए रत्नको और पातालके अन्दर छिपी हुई भोगवती नगरीके स्वामी शेषनागके फणमें लगे हुए माणिक्यको हर सकता हूँ, उसके लिए आँखोंसे दिखाई देनेवाले महलके ऊपर स्थित और मनुष्य मात्रके लिए शरणभूत मन्दिरसे मणि चुराना कौन साहसका काम है ?" इस प्रकार अपने शौर्यको
१. चौरः । २. समीपम् । ३. चौरः ।