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उपासकाध्ययन तपसः प्रत्यवस्यन्तं यो न रक्षति संयतम् । नूनं स दर्शनाद्वाह्यः समयस्थितिलङ्घनात् ॥१६१॥ नवैः संदिग्धनिर्वा हैविदध्याद्गणवर्धनम् ।। एकदोषकृते त्याज्यः प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ॥१२॥ यतः समयकार्यार्थी नानापश्चजनाश्रयः । अतः संबोध्य यो यत्र योग्यस्तं तत्र योजयेत् ॥१६॥ उपेक्षायां तु जायेत तत्त्वाद् दूरतरो नरः ।
ततस्तस्य भवो दीर्घः समयोऽपि च हीयते ॥१४॥ धर्मसे भ्रष्ट होता हो तो सम्यग्दृष्टीको उसका स्थितिकरण करना चाहिए । जो तपसे भ्रष्ट होते हुए मुनिकी रक्षा नहीं करता है, आगमकी मर्यादाका उल्लंघन करनेके कारण वह मनुष्य नियमसे सम्यग्दर्शनसे रहित है ॥१९०-१९१॥ जिनके निर्वाहमें सन्देह है ऐसे नये मनुष्योंसे भी संघको बढ़ाना चाहिए। केवल एक दोषके कारण तत्त्वज्ञ मनुष्यको छोड़ा नहीं जा सकता । क्योंकि धर्मका काम अनेक मनुष्योंके आश्रयसे चलता है । इसलिए समझा-बुझाकर जो जिसके योग्य हो उसे उसमें लगा देना चाहिए। उपेक्षा करनेसे मनुष्य धर्मसे दूर होता जाता है और ऐसा होनेसे उस मनुष्यका संसार सुदीर्घ होता है और धर्मकी भी हानि होती है ॥१९२-१९४॥
भावार्थ-ऊपर स्थितिकरण अंगका वर्णन करते हुए पं० सोमदेव सूरिने बहुत ही उपयोगी बातें कही हैं । धर्मसे डिगते हुए मनुष्योंको धर्मके प्रेमवश धर्ममें स्थिर करना स्थितिकरण अंग कहलाता है। धर्मके दो रूप व्यावहारिक कहे जाते हैं, एक श्रद्धान और दूसरा आचरण । यदि किन्हीं कारणोंसे किसी साधर्मीका श्रद्धान शिथिल हो रहा हो या वह अपने आचरणसे भ्रष्ट होता हो तो धर्मप्रेमीका यह कर्तव्य है कि वह उन कारणोंको यथाशक्ति दूर करके उस भाईको अपने धर्ममें स्थिर रखनेकी भरसक चेष्टा करे। डिगते हुए को स्थिर करनेके बदले भला-बुरा कहकर या उसकी उपेक्षा करके उसे यदि धर्मसे च्युत होने दिया जाये तो इससे लाभ तो कुछ नहीं होता उल्टे हानि ही होती है। क्योंकि एक तो धर्मसे भ्रष्ट होकर वह मनुष्य पाप-पंकमें
और लिप्त होता जाता है और इस तरह उसका भयंकर पतन हो जाता है और दूसरी ओर संघमेंसे एक व्यक्तिके निकल जानेसे धर्मकी भी हानि होती है । क्योंकि कहा है कि धर्मका पालन करने वालोंके विना धर्म नहीं रह सकता । यदि हमें अपने धर्मको जीवित रखना है और उसकी उन्नति करना है तो हमें अपने साधर्मी भाइयोंके सुख-दुःखका तथा मानापमानका ध्यान रखकर ही उनके साथ सदा सद्व्यवहार करते रहना चाहिए तथा अपनी ओरसे कोई भी ऐसा दुर्व्यवहार नहीं करना चाहिए जिससे उनके हृदयको चोट पहुँचे। क्योंकि प्रायः ऐसा देखा जाता है कि झगड़ा तो परस्परमें होता है और उसका गुस्सा निकाला जाता है मन्दिरपर । लड़-झगड़कर लोग मन्दिरमें आना छोड़ देते हैं। पूजन करते समय कहा-सुनी हो जाये तो पूजन करना छोड़ देते हैं । इस तरहकी बातोंसे कषाय बढ़ जानेके कारण मनुष्य हिताहितको भूल जाता है और उससे अपना
१. चलन्तम् । २. किं च संदिग्धनिर्वाहैनवैः संबं विवर्धयन् । प्राप्ततत्त्वं त्यजन्नेकदोषतः समयी कथम् ।।८४॥"संघकार्य यतोऽनेक॥८६॥ अयोपेक्षेत जायेत दवीयांस्तत्त्वतो जनः। वहीयांश्च भवोऽस्येत्थमनवस्था प्रथीयसी ॥८७॥-धर्मरत्ना०, ५० ७३ उ०। ३. मनुष्य ।