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उपासकाध्ययन मिन्द्रकच्छदेशेषु मायापुरीत्यपरनामावसरस्य रौरुकपुरस्य प्रभोः प्रभावतीमहादेवीविनोदायतनादौहायनान्मेदिनीपतेः सहर्शनशरीरगदचिकित्सायामचिकित्सायामपरः कोऽपि क्षान्तमतिप्रसरो मोक्षलक्ष्मीकटाक्षावेक्षणाक्षुण्णपात्रे मर्यक्षेत्रे नास्तीत्येतच्च वासवसंशेशस्त्रिदशः पुरन्दरोदितासहमानप्रशस्तत्र महामुनिसमूहप्रचारप्रचरे नगरेऽवतीर्य सर्वाङ्गाधिनाऽप्रतिष्ठैकुष्ठकोष्ठकं निष्ठ यूतद्रवोद्रेकोपद्रुतदेहमखिलदेहिसंदोहोद्वेजनधैवणेक्षणघ्राणगरणविनिर्गलदनर्गलदुर्गन्धपू. यप्रर्वाहमूर्धस्फुटितस्फोटस्फुटचेष्टितानिष्टमतिकाक्षिप्ताशेषशरीरमभ्यन्तरोच्छयथुकोथोत्तरङ्गत्वगन्तरालप्रलीनाखिलनखनासीरमविच्छिन्नोन्मूंछेदतुच्छकच्छ्रच्छन्नसृक्कसारिणीसरॅन्सततलालास्रावमनवरतस्रोतःसंतातीसारसंभूतबीभत्सभामनेकशी विशिखाशिखोत्पतनिपताश्रिताशुचिरं शिदुर्दर्शवपुषमृषिवेषमादायाद नायावनीपतिभवनमभजत् ।। . भूपतिरपि सप्ततलारब्धसौधमध्यमध्यासीनस्तमसाध्यव्याधिविधुरधिषाणाधीनविष्वाणोध्येषणाय निजनिलयमालीय मानमवलोक्य सौत्सुक्यमागत्य स्वीकृत्यच कृत्रिमातङ्कपावकपरवशास्वनितं मुहुर्मुहुर्महीतले निपतन्तमनुद्विग्नमनश्चरित्रः प्रकामदुर्जयखर्जनार्जनजर्जरितगात्रं काश्मीरपङ्कपिञ्जरेण भुजपअरेणोदनीयानीय चाशेनवेश्मोदरं स्वयमेवसमाचारितोपकारस्तदभिलाषोन्मेषसारैराहारैरुपशान्तार्शनीयोत्कण्ठमाकण्ठं भोजयामास ।
एक बार, मति, श्रुत और अवधि ज्ञानसे युक्त सौधर्मेन्द्र देवोंकी सभामें उनके उपकारके लिए सम्यग्दर्शन रूपी रत्नके गुणोंका उदाहरण देते हुए बोला-'इस समय, मोक्ष रूपी लक्ष्मीके कटाक्षको देखनेके लिए निर्दोष पात्र स्वरूप इस मनुष्य लोकमें, इन्द्रकच्छ देशकी मायापुरी नगरीके स्वामी राजा उद्दायनके समान निर्विचिकित्सा अंगका पालन करने वाला दूसरा नहीं है।'
यह बात वासव नामके देवको सह्य नहीं हुई। वह अनेक महामुनियोंके विहारसे पवित्र उस नगरीमें आया और उसने एक कोढ़ी मुनिका रूप धारण किया। उसके समस्त अंग कोढ़से गल रहे थे, सारा शरीर बहते हुए पीब वगैरहसे सना था, आँख, नाक, कान वगैरहके छिद्रोंसे अत्यन्त दुर्गन्धवाला मल बहता था, जिसे देखकर सबको ग्लानि होती थी, शरीरके ऊपरी भागमें अनेक फोड़े उठे हुए थे जिनपर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं । समस्त शरीरमें निरन्तर खाज उठ रही थी, ओठोंके दोनों ओरसे निरन्तर राल टपकती थी और अतीसार रोगके कारण निरन्तर मल, बहता था । गन्दी नालियोंमें गिरने उठनेसे उसका शरीर गन्दगीसे भरा हुआ था।
ऐसे दुर्दर्शनीय साधुका वेष बनाकर भोजन करनेके लिए वह देव राजभवन गया। अपने सतमंजिले महलमें बैठे हुए राजाने असाध्य रोगसे व्याकुल धुद्धिवाले उस साधुको जैसे ही भोजनके लिए अपने महलकी ओर आता हुआ देखा, वह बड़ी उत्सुकताके साथ उठकर आया और उसे पड़गाहा । बनावटी रोगसे उसकी आवाज भारी हो रही थी, बार-बार वह पृथ्वीपर गिर पड़ता था तथा अत्यन्त भयानक खाजसे उसका शरीर जर्जर हो चुका था । ऐसे उस साधुको वह राजा किसी उद्वेगके बिना केशरके लेपसे पीली हुई अपनी भुजाओंमें उठाकर भोजनशालामें लाया । और स्वयं ही सब उचित उपचार करके उसे भरपेट रुचिकर आहार कराया।
१. -सूण- अ० ज० मु० । परिपूर्ण । २. व्याधिना-रोगेण । ३. अशोभित । ४. कर्ण-चक्षुओण-गलएतेभ्यो-विनिर्गलदनवरतपूयप्रवाहम् । ५. कोथस्तु मथने नेत्रत्वम्भेदे शाटितेऽपि च । ६. उत्पद्यमान । , ७. श्रवत् । ८. मलद्वारश्रवत् । ९. -भावं नै-ब० । १०. गूथश्रेणिं । ११. आहारार्थम् । १२. आहारग्रहणाय । १३. आगच्छन्तम् । १४. रोग। १५. उद्धृत्य। १६. रसवतीगृहमध्यम् । १७.-पचार-मु०। १८. उपशान्ता
अशनाय उत्कण्ठा यस्य।