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सोमदेव विरचित . [कल्प ८, श्लो० १६२मनङ्गमतिमेवमपृच्छत्-'वत्से, अभिनवविवाहभूषणसुभगहस्ते, वास्ते 'समुल्लिखितलाञ्छनेन्दुसुन्दरमुखी प्रियसखी तवातीवकेलिशीलप्रकृतिरनन्तमतिः।'
अनङ्गमतिः-'तात, वणिग्वृन्दारक दारिकोद्गीयमानमङ्गला कृत्रिमपुत्रकवरव्याजेनात्मपरिणयनाचरणपरिणामपेशला पञ्जरास्थितशुकसारिकावदनवाद्यसुन्दरे वासोवासपरिसरे समास्ते।
'समाहृयतामितः'। 'यथादिशति तात'। ,
प्रियदत्तश्रेष्ठी वृद्धभावात्परिहासालापनपरमेष्ठी समागतां सुतामवलोक्य 'पुत्रि, निसर्गविलासरसोत्तरङ्गापाङ्गीपहसितामृतसरणिविषये सदैव पंञ्चालिकाकेलिकिलँहृदये संप्रत्येव तव मन्मथपथाः परिणयनमनोरथाः। तद् गृह्यतां तावत्समस्तव्रतैश्वर्यवर्य ब्रह्मचर्यम् । अत्रैष ते सातो भगवानशेषश्रुतप्रकाशनाशयभूरिधर्मकोर्तिसूरिः।।
___ अनन्तमतिः-तात, नितान्तं गृहीतवत्यस्मि । न केवलमत्र मे भगवानेव साक्षी किंतु भवानम्बा च । अन्यदा तु।
उद्भिन्ने स्तनकुड्मले स्फुटरसे हासे विलासालसे
किंचित्कम्पितकैतवाधरभरप्राये वचःप्रक्रमे।
पत्नीके साथ सहकूट चैत्यालय जानेको था । उसने अपनी लड़कीकी सखी अनंगमतीसे पूछाविवाहके नये भूषणोंसे अलंकृत पुत्री अतीव परिहासप्रिय तेरी सखी चन्द्रमुखी अनन्तमती कहाँ है ?
अनंगमती बोली-'पिता जी ! स्वच्छन्द विचरण करनेवाले तोता मैनाके मधुर कलरवसे गुंजित घरके निकट भागमें, वह गुड्डेके विवाहके बहानेसे अपने विवाहका स्वप्न देख रही है और श्रेष्ठीजनोंकी लड़कियाँ मंगल गान कर रही हैं।'
'उसे बुलाओ ?' 'जो आज्ञा'
श्रेष्ठी प्रियदत्त वृद्ध हो जानेसे परिहास करनेमें बड़ा पटु था। कन्याको आई हुई देखकर बोला- 'पुत्रि ! सदैव गुडडीसे खेलनेके लिए विकल तुम्हारे हृदयमें अभीसे विवाहका मनोरथ हो चला है, अतः समस्त व्रतोंमें श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य व्रतको स्वीकार करो। समस्त श्रुतके ज्ञाता भगवान् धर्मकीर्ति सूरि तुम्हारे साक्षी हैं।'
___ अनन्तमती बोली-पिताजी ! मैंने ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया। और इसमें केवल भगवान् ही साक्षी नहीं हैं किन्तु आप और माताजी भी साक्षी हैं ।
उक्त घटनाको घटे वर्षों बीत गये और अनन्तमतीमें यौवनका संचार हो चला। उसके अंग-प्रत्यंग विकसित हो उठे। जब वह हँसती थी तो उसकी हँसी अलसाई हुई होती थी। जब
१. निर्लाञ्छनचन्द्रवत् । २. कन्याजन । ३. निवासगृहप्राङ्गणे । ४. नेत्रप्रान्त । ५. कुल्या । ६. पुत्तलिका । ७. पटुहृदये । -विकलह-आ० । ८. आशय एव सुवर्ण विद्यते यस्य सः । ९. कम्पितमिषेण ।