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सोमदेव विरचित [कल्प ६, श्लो० १५४पशान्ताशयः सम्यग्दर्शनमणुव्रताश्रयमादाय तदिवस एव तदुपदेशानिश्चितात्परमेश्वरशरीरनिरतिशयप्रकाशमहिमः कृतनियमः सकलभुवनपतिस्तूयमानगुणगणोदन्तं श्रीवासुपूज्यभगवन्तमुपासितुं प्रतिष्ठमानः प्रमदेनादसुन्दरदुन्दुभिरवाकारितनिरवशेषपरिजनः समासत्समस्तविष्टविशिष्टादृष्टचेष्टः । .. स च दृष्टः कदाचिदपि क्षुद्रोपद्रवाविप्रलब्धः प्रारब्धश्च "पुरप्लोषान्तःपुरविध्वंसवरूँथिनीमथनप्रसभप्रभंजनोर्जितपर्जन्यपरुषवर्षोपलासारादिवसतिभिर्दमशार्दूलोत्तराकृतिभिर्विकृतिभिरुपद्रोतुम् । तथाप्यविचलितचेतसमवसायं सनरवरं कुजरं मायामयप्रतिधे स्ताघे व्याप्ताखिलदिगारामसंगमे कर्दमे निमजयद्यां ताभ्यां 'नमः सुरासुरोपसर्गसंगसूदनाभिधानमात्रमन्त्रमाहात्म्यसाम्राज्याय श्रीवासुपूज्याय' इति तत्र निमजतो भूभृतो वचनमाकर्ण्य तद्धैर्योत्कर्षोन्मिपत्तोषमनीषाप्रसराभ्यां लघुपरिमुषिताशेषविघ्नव्यतिकराभ्यामाचरितसत्काराभ्याम् 'अहो नूतनस्य सम्यक्त्वरत्नस्याच्छमसनपथ पत्ररथ, नैतचित्रमत्र यत्संधासत्त्वाभ्यामखिलैरपि लोकैरसदृशेषु भवादृशेषु न प्रभवन्ति प्रसंभप्रसवाः खुद्रोपद्रवाः । यतः।
एकापि "समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गति निवारयितुम् ।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः ॥१५५॥ रणमें प्रवीण श्रीसुधर्माचार्यके दर्शनोंके लिए गया। उनके शरीरकी अद्भुत प्रभा और प्रभाव देखकर उसका राग शान्त हो गया और उसने उनसे सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रत धारण कर लिये । उसी दिन उसने आचार्यके उपदेशसे अर्हन्त भगवान्के अतिशय युक्त शरीरकी महिमाको समझ लिया और नियम लेकर समस्त 'भुवनके स्वामी जिनके गुणोंका बखान करते हैं उन श्रीवासुपूज्य भगवान्के दर्शनोंके लिए चल दिया । दुन्दुभिके मधुर शब्दको सुनकर समस्त परिजन भी साथ हो गये।
दोनों देवताओंने उस राजाको जाता हुआ देखा जो कभी भी क्षुद्र उपद्रवोंसे भी सताया नहीं गया था, और परीक्षा लेनेके लिए विघ्न करना प्रारम्भ कर दिया। नगर दाह, रनवासका विनाश, सेनाका नाश, जोरकी हवा चलाकर मेघोंके द्वारा घनघोर वर्षा, उल्कापात आदिके द्वारा तथा भयंकर सिंहोंकी आकृतियोंके द्वारा उपद्रव करनेपर भी जब पद्मरथ राजाका मन विचलित नहीं किया जा सका तो उन दोनोंने चारों ओर मायामयी कीचड़ बनाकर राजा सहित हाथीको उसमें डुबा दिया। डूबते हुए राजाके मुखसे निकला-'जिनके नाममात्रसे सुर और असुरोंके द्वारा किये गये उपसर्ग दूर हो जाते हैं उन वासुपूज्य भगवान्को नमस्कार है।'
यह शब्द सुनते ही उन दोनों देवोंको परम हर्ष हुआ, उन्होंने तुरन्त ही सब विघ्नोंको दूर कर दिया और राजाका सत्कार करते हुए बोले-'नये सम्यक्त्व रूपी रत्नके आश्रय रूप निष्कपट पद्मरथ ! प्रतिज्ञा और साहसमें आपके समान कोई नहीं है, आप जैसे लोगोंपर बलात् किये गये क्षुद्र उपद्रवोंका कोई प्रभाव नहीं हो सकता। क्योंकि 'अकेली एक जिन-भक्ति ही ज्ञानीके दुर्गतिका निवारण करनेमें, पुण्यका संचय करनेमें और मुक्ति रूपी लक्ष्मीको देनेमें समर्थ है ॥१५॥
१. वृत्तान्तम् । २. आनन्दभेरी । ३. सकलविष्टपनिविष्ट-आ० । ४. अपराभूतः । ५. नगरदाह । ६. सेना । ७. वायु । ८. ज्ञात्वा । ९. अगाधे । १०. विनाशन । ११. मात्रमाहा-आ० । १२. प्रतिज्ञा । १३. हठादुत्पन्नाः । -भप्रभवाः आ० । १४. एकापि शक्ता जिनदेवभक्तिर्या दुर्गतर्वारयितुं हि जीवान् । आसोद्वितत्सौख्यपरं परार्थं पुण्यं नवं पूरयितुं समर्था ॥३८॥-वरांगचरित, २२ सर्ग ।