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उपासकाध्ययन मलितवान् । अमरचरौ 'विकिरावप्युड्डीय तदनविटपिनि संनिविश्य पुनरपि तं तापसमवलोहलालापौ निकाममुपजहसतुः। तापसः साध्वसविस्मयोपसृतमानसः 'नैतौ खलु पक्षिणौ भवतः। किंतु रूपान्तरावुमामहेश्वराविव कौचिद्देवविशेषौ । तदुपगम्य प्रणम्य च पृच्छामि तावदात्मनः पापकर्मत्वकारणम् ।
____ अहोमत्पूर्वपुण्यसंपादितावलोकनदिव्यद्विजोत्तमान्वयसंभवसदनपतङ्गमिथुन, कथयतां भवन्तौ कथमहं पापकर्मा' इति। . पतत्रिणी-तपस्विन् , आकर्णय ।
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गों नैव च नैव च । तस्मात्पुत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्भवति भिक्षुकः ॥१५२॥
तथा
अधीत्य विधिवद्वेदान्पुत्रॉश्चोत्पाद्य युक्तितः ।
इष्ट्वा यज्ञैर्यथाकालं ततः प्रव्रजितो भवेत् ॥१५३॥ इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य तपस्यसि' इति ।
'कथं तर्हि मे शुभाः परलोकाः'। 'परिणयनकरणादौरसपुत्रोत्पादनेन'।
'किमत्र दुष्करम्' इत्यभिधाय मातुलस्य विजयामहादेवीपतेरिन्द्रपुरैश्वर्यभाजः काशिराजस्य भूभुजो भवनभाग्भूत्वा तदुहितरं रेणुकां परिणीयाविरलकलापोलपालंकृतपुलिनासराले मन्दाकिनीकूले महदाश्रमपदं संपाद्य परशुरामपिताऽभूत् । लिए दोनों हाथोंसे अपने सिरको मसला। दोनों पक्षी भी तत्काल उड़कर उसके सामने वाले वृक्षपर जा बैठे, और मीठे शब्दोंमें उस तापसकी खूब हँसी करने लगे। यह देखकर तापसका मन भय और आश्चर्यसे भर गया । वह सोचने लगा-'ये दोनों पक्षी नहीं हैं किन्तु रूप बदले हुए शिव और पार्वतीके समान कोई देवता हैं अतः इनके पास जाकर और प्रणाम करके अपने पापी होनेका कारण पूछू ।'
यह सोच उनके पास जाकर वह बोला-'दिव्य द्विजश्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न पक्षियुगल ! मेरे पूर्व संचित पुण्यसे ही आपका दर्शन हुआ है । बतलाइए । मैं कैसे पापी हूँ।'
पक्षी बोले-'सुनो तपस्वी-स्मृतिकारोंका कथन है कि बिना पुत्रके मनुप्यकी गति नहीं होती और स्वर्ग तो मिलता ही नहीं है । इसलिए पुत्रका मुख देखकर पीछे भिक्षुक होना चाहिए । तथा-विधिपूर्वक वेदोंका अध्ययन करके, धर्मपूर्वक पुत्रोंको उत्पन्न करके और शक्तिके अनुसार यज्ञ करके फिर साधु होना चाहिए। ॥१५२-१५३॥
किन्तु -तुम स्मृतिकारके इस कथनको प्रमाण न मानकर तपस्या करते हो।' 'तो मेरा परलोक कैसे शुभ हो सकता है ?' 'विवाह करके औरस पुत्र उत्पन्न करनेसे ।'
'यह क्या कठिन है'-ऐसा कहकर जमदग्नि ऋषिने विजया महादेवीके पति, इन्द्रपुरके समान ऐश्वर्यके भोगी अपने मामा काशीराजके महलमें जाकर उनकी लड़की रेणुकासे विवाह कर
१. पक्षिणी । २. व्यक्तस्वरौ । ३. 'अधीत्य......इष्ट्वा च शक्तिनो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत् ॥' -मनुस्मृति ६-३६ ।