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सोमदेव विरचित
[श्लो० ११६मनोवाकायकर्माणि शुभाशुभविभेदतः। भवन्ति पुण्यपापानां बन्धकारणमात्मनि ॥११॥ निराधारो निरालम्बः पवमानसमाश्रयः।
नभोमध्यस्थितो लोकः सृष्टिसंहारवर्जितः ॥१२०॥ होनेसे जीवके उद्धारमें सबसे प्रबल बाधक हैं। इनको दूर किये बिना कोई प्राणी संसार समुद्रसे बाहर नहीं निकल सकता ॥ ,
योग मन वचन और कायकी क्रिया शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। इनमेंसे शुभ क्रियाओंसे आत्माके पुण्यबन्ध होता है और अशुभ क्रियाओंसे पापबन्ध होता है ॥११९ ।।
भावार्थ-हिंसा करना, चोरी करना, मैथुन करना आदि अशुभ कायिक क्रिया है। कठोर वचन बोलना, असत्य वचन बोलना, किसीकी निन्दा करना आदि अशुभ वाचनिक क्रिया है। किसीका बुरा विचारना आदि अशुभ मानसिक क्रिया है। इन क्रियाओंसे पाप बन्ध होता है। और इनसे बचकर अच्छे काम करना, हित मित वचन बोलना और दूसरोंका भला विचारना आदि शुभ क्रियाओंसे पुण्यबन्ध होता है । असलमें शास्त्रकारोंने योगको बन्धका कारण बतलाया है और चूं कि उक्त क्रियाएँ योगमें कारण होती है इस लिए क्रियाओंको योग कहा है । ऊपर भी क्रियाओंसे आशय योगका ही है क्यों कि ग्रन्थकार बन्धके कारण बतला रहे हैं और वे पाँच होते हैं- मिथ्यात्व, असंयम, प्रमाद, कषाय और योग। कोई कोई आचार्य प्रमादको असंयममें ही गर्भित कर लेते हैं,जैसा कि सोमदेव सूरिने किया है। अतः उनके मतसे चार ही बन्धके कारण माने जाते हैं। इस प्रकार बन्धके कारण बतलाकर ग्रन्थकार लोकका स्वरूप कहते हैं-]
लोकका स्वरूप यह लोक निराधार है, निरालम्ब है-कोई इसे धारण किये हुए नहीं हैं, केवल तीन प्रकारकी वायुके सहारेसे आकाशके बीचोबीचमें यह ठहरा हुआ है। न इसकी कभी उत्पत्ति हुई है और न कभी विनाश ही होता है।
भावार्थ-जैन धर्मके अनुसार आकाश द्रव्य सर्वत्र व्याप्त है। आकाशका काम सब द्रव्योंको स्थान देना है। उस आकाशके बीचमें चौदह राजू ऊँचा, उत्तर दक्षिण सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम नीचे सात राजू , मध्यमें एक राजू , पुनः पाँच राजू और अन्तमें एक राजू विस्तार वाला लोक है । लोकका आकार दोनों पैर फैलाकर तथा कूल्होंपर दोनों हाथ रखकर खड़े हुए पुरुषके समान है । पूर्व पश्चिममें पैरके नीचे लम्बाई ७ राजू है, कटिभागमें एक राजू है, दोनों कोनियों के स्थानपर पाँच राजू है और ऊपर सिरपर एक राजू है। वैसे तो यह लोक आकाशका ही एक भाग है। किन्तु जितने आकाशमें सभी द्रव्य पाये जाते हैं उतनेको लोकाकाश कहते हैं और लोकसे बाहरके शुद्ध आकाशको अलोकाकाश कहते हैं। इस तरह आकाशके दो भाग हो गये हैं । वह आकाश स्वयं ही अपना आधार है उसके लिए किसी आधारकी आवश्यकता नहीं है। अब रह जाते हैं शेष द्रव्य, उनमें भी जो चार द्रव्य अमूर्तिक हैं उन्हें भी किसी अन्य आधारकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि एक तो वे आकाशकी ही तरह अमूर्तिक और स्वाधार हैं । दूसरे