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सोमदेव विरचित
सूर्याघों ग्रहणस्नानं संक्रान्तौ द्रविणव्ययः । संध्या सेवाग्निसत्कारो गेहदेहार्चनो विधिः ॥ १३६॥ नदी समुद्रेषु मज्जनं धर्मचेतसा । तरुस्तूपाग्रभक्तानां वन्दनं भृगुसंश्रयः ॥१३७॥ गोपृष्ठान्तनमस्कारस्तन्मूत्रस्य निषेवणम् । रत्नवाहनभूयज्ञशस्त्रशैलादिसेवनम् ॥ १३८ ॥ समयान्तरपाखण्डवेदलोकसमाश्रयम् । एवमादिविमूढानां ज्ञेयं मूढमनेकधा ॥ १३६ ॥ वर्थ लोकवार्तार्थमुपरोधार्थमेव वा । उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ॥१४०॥
शायैव क्रियामीषु न फलावाप्तिकारणम् । यद्भवेन्मुग्धबोधानामूषरे कृषिकर्मवत् ॥ १४१ ॥ वस्तुन्येव भवेद्भक्तिः शुभारम्भाय भाक्तिके । नारत्नेषु रत्नाय भावो भवति भूतये ॥१४२॥
[ कल्प ४, श्लो० १३६
भावार्थ – मुनियोंके पास एक दमड़ी भी नहीं रहती, जिससे क्षौरकर्म करा सकें, यदि दूसरे से माँगते हैं तो दीनता प्रकट होती है, पासमें छुरा वगैरह भी नहीं रख सकते । और यदि केश बढ़ाकर जटा रखते हैं तो उसमें जूँ वगैरह पड़ जाती हैं इसलिए वह हिंसाका कारण है । इसके विपरीत केशलोंच करनेमें न किसीसे कुछ माँगना पड़ता है, न कोई हिंसा होती है, प्रत्युत उससे वैराग्यभाव दृढ़ होता है और कष्टों को सहने की क्षमता बढ़ती है, इसलिए मुनिगण केशलोंच करते हैं।
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें आगम और उसमें कहे गये पदार्थों की परीक्षा नामका तीसरा
कल्प समाप्त हुआ ।
लोकमें प्रचलित मूढ़ताओं का निषेध सूर्यको अर्घ देना, ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्ति होनेपर दान देना, सन्ध्या बन्दन करना, अग्निको पूजना, मकान और शरीरकी पूजा करना, धर्म मान कर नदियों और समुद्र में स्नान करना, वृक्ष स्तूप और प्रथम प्रासको नमस्कार करना, पहाड़की चोटीसे गिरकर मरना, गौके पृष्ठ भागको नमस्कार करना, उसका मूत्र पान करना, रत्न सवारी पृथ्वी यक्ष शस्त्र और पहाड़ वगैरहकी पूजा करना, तथा धर्मान्तरके पाखण्ड, वेद और लोकसे सम्बन्ध रखनेवाली इस प्रकार की अनेक मूढ़ताएँ जाननी चाहिएँ ॥ वरकी आशासे या लोक रिवाजके विचारसे या दूसरोंके आग्रहसे इन मूढ़ताओंका सेवन करनेसे सम्यग्दर्शनकी हानि होती है | जिस प्रकार ऊसर भूमिमें खेती करने से केवल क्लेश ही उठाना पड़ता है, फल कुछ भी नहीं निकलता, उसी तरह इन मूढ़ताओंके करनेसे केवल क्लेश ही उठाना पड़ता है, फल कुछ भी नहीं निकलता ॥ १३६-१४१ ॥
वस्तु की गई भक्ति ही शुभ कर्मका बन्ध कराती है । जो रत्न नहीं है उसे
१. गिरिपातः । २ पूजनम् । ३. 'भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ ३० ॥ - रत्नकरण्डश्रा० ।