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तत्र
सोमदेव विरचित
अहमेको न मे कश्चिदस्ति श्राता जगत्त्रये । इति व्याधिव्रजोत्क्रान्तिभीतिं शङ्कां प्रचक्षते ॥ १४७ ॥ ऐतत्तत्त्वमिदं तत्त्वमेतद्व्रतमिदं व्रतम् । एष देवश्व देवोऽयमिति शङ्कां विदुः पराम् ॥१४८॥ इत्थं शङ्कितचित्तस्य न स्याद्दर्शनशुद्धता । न चास्मिन्नी प्सितावाप्तिर्यथैवोभयवेदने ॥१४६॥ एष एव भवेद्देवस्तत्त्वमप्येतदेव हि । एतदेव व्रतं मुक्त्यै तदेव स्यादशङ्कधीः ॥ १५० ॥ तो ज्ञाते रिपौ दृष्ठे पात्रे वा समुपस्थिते । यस्य दोलायते चित्तं रिक्तः सोऽमुत्र चेह च ॥ १५१ ॥
[ कल्प ५, श्लो० १४७
इनमें पहले शंका दोषका वर्णन करते हैं
'मैं अकेला हूँ, तीनों लोकोंमें मेरा कोई रक्षक नहीं है।' इस प्रकार रोगोंके आक्रमणके भयको शंका कहते हैं ॥ ' अथवा यह तत्त्व है या यह तत्त्व है ?' 'यह व्रत है या यह व्रत है ?' 'यह देव है कि यह देव है ?' इस प्रकार के संशयको शंका कहते हैं | जिसका चित्त इस प्रकार - से शङ्कित - शङ्काकुल या भयभीत है उसका सम्यग्दर्शन शुद्ध नहीं है । तथा जैसे नपुंसक अपने मनोरथ को पूरा नहीं कर सकता, वैसे ही उसे भी अभीष्टकी प्राप्ति नहीं हो सकती || 'यही देव है, यही तत्त्व हैं और इन्हीं व्रतोंसे मुक्ति प्राप्त हो सकती है। ऐसा जिसको दृढ़ विश्वास है वही मनुष्य निःशङ्क बुद्धिवाला है | किन्तु तत्त्वके जाननेपर, शत्रुके दृष्टिगोचर होनेपर और पात्र के उपस्थित होनेपर जिसका चित्त डोलता है, जो कुछ भी स्थिर नहीं कर सकता, वह इस लोकमें भी खाली हाथ रहता है और परलोकमें भी खाली हाथ रहता है ।। १४७ - १५१ ॥
भावार्थ- 'शंका' शब्दके दो अर्थ हैं- -भय और सन्देह । जो मिथ्यादृष्टि होता है उसे सदा भय सताता रहता है क्योंकि भय उसे ही होता है जो परवस्तुमें 'यह मेरी हैं' ऐसी भावना रखता है । जो यह समझता है कि यह शरीर, स्त्री, पुत्र, धन-सम्पत्ति वगैरह मुझे 1 शुभ कर्मके उदय से प्राप्त हुई है । जबतक शुभ कर्मका उदय है तब तक रहेगी उसके बाद नष्ट हो जायेगी, उसे कभी भी भय नहीं सताता । अतः जिसे मृत्युका, अरक्षाका या धन-धान्यके विनाशका सदा भय लगा रहता है वह मिध्यादृष्टि है । किन्तु जो सम्यग्दृष्टि होता है वह सदा निर्भय रहता है । अतः भय करना सम्यक्त्वका घातक है। इसी तरह सदा सन्देह करते रहना भी सम्यक्त्वका घातक है । वस्तु तत्त्वमें यथार्थ प्रतीति सम्यग्दृष्टिको ही होती है। वह एक बार वस्तु स्वरूपको समझकर जब उसपर दृढ़ आस्था कर लेता है तो फिर उसे उसके विश्वाससे कोई भी नहीं डिगा
१. तत्त्वमेतदिदं तत्त्वमेतद्व्रतमिदं व्रतम् । देवोऽयमेष देवः स्यादित्ययं संशयो मतः ॥ २४ ॥ - प्रबोधसार । २. ' तथा संदेहभावेषु न स्याद्दर्शनशुद्धता । नैवास्मिन्नीप्सितावाप्तिर्यथैवोभयवेतने ॥ २५ ॥ - प्रबो० सा० । ३. नपुंसक वेदने वाञ्छायां यथा वाञ्छितार्थप्राप्तिर्न भवति । ४. 'अर्हन्नेव भवेद्देवस्तत्त्वं तेनोक्तमेव च । व्रतं दयाद्यमेव स्यान्मुक्त्यै योऽन्यो ह्यशङ्कितः ॥ ३८ ॥ - धर्मरत्नाकर - पत्र ६६ । ५. 'तत्त्वे बुद्धे धने लब्धे पात्रे वा समुपस्थिते । यस्य दोलायते स्वान्तः सोऽधर्मः स्याद् भवद्वये ||२६|| - प्रबो० सा० । विज्ञाय तत्त्वं प्रविलोक्य शत्रून् दृष्ट्वा स्वयं पात्रमुपस्थितं च । दोलायमानो हृदि जायते यो रिक्तो ? ह्यसावत्र परत्र च स्यात् ॥४०॥ धर्मरत्ना०, पत्र ६९ ।