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उपासकाध्ययन अदेवे देवताबुद्धिमव्रते व्रतभावनाम् । अतत्त्वे तत्त्वविज्ञानमतो मिथ्यात्वमुत्सृजेत् ॥१४३|| तथापि यदि मूढत्वं न त्यजेत्कोऽपि सर्वथा। मिश्रत्वेनानुमान्योऽसौ सर्वनाशो न सुन्दरः ॥१४४॥ न'स्वतो जन्तवः प्रेर्या दुरीहाः स्युर्जिनागमे । स्वत एव प्रवृत्तानां तद्योग्यानुग्रहो मतः ॥१४५॥ __ इत्युपासकाध्ययने मूढतोन्मथनो नाम चतुर्थः कल्पः । शङ्काकाङ्क्षाविनिन्दान्यश्लाघा च मनसा गिरा।
एते दोषाः प्रजायन्ते सम्यक्त्वक्षतिकारणम् ॥१४६॥ रत्न माननेसे कल्याण नहीं हो सकता ॥ कुदेवको देव मानना, अव्रतको व्रत मानना और अतत्त्वको तत्त्व मानना मिथ्यात्व है अतः इसे छोड़ देना चाहिए ॥ फिर भी यदि कोई इन मूढ़ताओंका सर्वथा त्याग नहीं करता (और सम्यक्त्वके साथ-साथ किसी मूढ़ताका भी पालन करता है ) तो उसे सम्यमिथ्यादृष्टि मानना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सेवनके कारण उसके धर्माचरणका भी लोप कर देना अर्थात् उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना ठीक नहीं है ॥ १४२-१४४ ॥
भावार्थ-ऊपर जिन मूढ़ताओंका उल्लेख किया है, उनमेंसे बहुत-सी मूढ़ताएँ आज भी प्रचलित हैं, और लोग धर्म मानकर उन्हें करते हैं, किन्तु उनमें कुछ भी धर्म नहीं है । वे केवल धर्मके नामपर कमाने-खानेका आडम्बर मात्र है। ऐसी मूढ़ताओंसे सबको बचना चाहिए । किन्तु यदि कोई किसी कारणसे उन मूढ़ताओंको पूरी तरहसे नहीं त्याग देता और अपने धर्माचरणके साथ उन्हें भी किये जाता है तो उसे एक दम मिथ्यादृष्टि न मानकर सम्यङ् मिथ्यादृष्टि माननेकी सलाह ग्रन्थकार देते हैं। वे उसके उस धर्माचरणका लोप नहीं करना चाहते,जो वह मूढ़ता पालते हुए भी करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारके समयमें लोक-रिवाज या कामना वश कुछ जैनोंमें भी मिथ्यात्वका प्रचार था और बहुतसे जैन उसे छोड़नेमें असमर्थ थे। शायद उन्हें एक दम मिथ्यादृष्टि कह देना भी उन्हें उचित नहीं ऊँचा, इसलिए सम्यमिथ्यादृष्टि कह दिया है, वैसे तो मिथ्यात्वसेवी जैन भी मिथ्यात्वी ही माने गये हैं।
जिन मनुष्योंकी चेष्टाएँ या इच्छाएँ अच्छी नहीं हैं उन्हें जिनागममें स्वयं प्रेरित नहीं करना चाहिए । अर्थात् ऐसे मनुष्योंको जैनधर्ममें लानेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिए, किन्तु यदि वे स्वयं इधर आवे तो उनके योग्य अनुग्रह-साहाय्य कर देना चाहिए ॥१४५ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें मूढ़ताका निषेध करनेवाला चौथा कल्प समाप्त हुआ।
सम्यग्दर्शनके दोष [अब ग्रन्थकार सम्यग्दर्शनके दोष बतलाते हैं-]
शङ्का, कांक्षा, विनिन्दा और मन तथा वचनसे मिथ्यादृष्टिको प्रशंसा करना, ये दोष सम्यग्दर्शनकी हानिके कारण हैं ॥१४६॥
१. ये नरा दुरोहा दुश्चेष्टास्ते न प्रेरणीया जिनागमे । ये च स्वयं प्रवृत्तास्तेषां योग्यानुग्रहः कार्यः । २. 'शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसा-संस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ।-तत्त्वार्थसूत्र ७-२३ ।