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सोमदेव विरचित [कल्प ५, श्लो० १५१मे शरीरसंबाधः' इति गृहिणीगिरम् । ततश्च 'यदीदं व्रतमहमद्य नाग्रहीषम् , तदेमां मातरमिदं च प्रियकलत्रमसंशयं 'विशस्येह दुरपवादरजसाममुत्र च दुरन्तैनसां भागी भवेयम्' इति जातनिर्वेदः सर्वमपि शातिलोकं यथायथं मनोरथोत्सेकमवस्थाप्य 'यत्रैव देशे दुरपवादोपहतं चेतस्तत्रैव देशे समाश्रीयमाणमाचरणं न भवति निरपवादम्' इति प्रकाशितोपदेशस्य तस्य भगवतो निदेशाद्धरणिभूषणभूधरोपकण्ठे तपस्यतः कान्तारदेवताविहितसपर्यादूरधर्माचार्यात्सुरसुन्दरीकटाक्षविपक्षां दीक्षामादाय विदितवेदितव्यसंप्रदायः सन्नम्बरे स्तम्बाडम्बरितोपात्तपलाशिमालायामेतदचलमेखलायामातापनयोगस्थितोऽनवरतप्रवर्धमानाध्यात्मध्यानावन्ध्यनिरतः 'किमयं कर्करोत्कीर्णः, किं वास्मादेव पर्वतान्निरूढः' इति वितर्काभ्यो बभूव ।
संजातसुहृत्समालोकनकामो विश्वानुलोमोऽपि तत्परिजनात्परिशातैतत्प्रव्रजनव्यतिकरः 'मित्रधेयस्य धन्वन्तरेर्या गतिः सा ममापि' इति प्रतिज्ञाप्रवरस्तत्रागत्य जैनजनसमयस्थितिमनवबुध्यमानः 'हंहो मनोरहस्य वयस्य, चिरान्मिलितोऽसि । किमिति न मे गाढामङ्कपाली ददासि, किमिति न काममालापयसि, किमिति न सादरं वार्तामापृच्छसे' इत्यादि बहु सप्रश्रयमाभाष्य निजनियमानुष्ठानकतानमनसि निरागसि धन्वन्तरियतीश्वरे प्ररुष्य सविधाशिवतातिः प्रादुर्भवदप्रीतिर्भूतरमणीयधरणिधरसमीपसमुत्पादितोटजस्य सहस्रजटस्य जटिनो निकटे शतजटोऽजनिष्ट। भाग्यवश उसी समय उसने पत्नीकी आवाज सुनी, जो कह रही थी-माता ! 'जरा दूर हटो, मुझे कष्ट हो रहा है।' तब धन्वन्तरि सोचने लगा-'यदि मैंने यह व्रत न लिया होता तो आज अवश्य ही माता और पत्नीको मारकर इस लोकमें निन्दाका और परलोकमें भारी पापका भागी होता ।' यह सोचते ही उसे वैराग्य हो गया । तब सब परिवारके लोगोंके मनको जैसे-तैसे सान्त्वना देकर उसने जिन दीक्षा लेनेका विचार किया। आचार्यने कहा कि जिस देशमें अपनी बदनामी हो उस देशमें धारण किया हुआ आचरण निरपवाद नहीं रहता। अतः आचार्यकी आज्ञासे धरणिभूषण नामके पर्वतके समीपमें तपस्या करनेवाले, श्रीधर्माचार्यके पास जाकर उसने जिनदीक्षा धारण कर ली । आम्नायकी जानने योग्य सब बातोंको जानकर धन्वन्तरि मुनि उसी पहाड़की उपत्यकामें आतापन योगसे स्थित होकर आत्मध्यानमें लीन हो गये। उन्हें देखकर यह सन्देह होता था क्या यह इसी पर्वतसे निकला है या पत्थरमें उकेरी गई कोई आकृति है ?
____एक दिन विश्वानुलोम अपने मित्र धन्वन्तरिसे मिलनेकी उत्कण्ठाके साथ उसके घर गया । और वहाँ उसे धन्वन्तरिके कुटुम्बिजनोंसे उसके दीक्षा लेनेका सब समाचार ज्ञात हुआ। 'मेरे मित्र धन्वन्तरिकी जो दशा हुई वही मेरी भी हो' ऐसी प्रतिज्ञा करके वह धन्वन्तरिके पास आया और जैन मुनिके आचारको न जानता हुआ कहने लगा-'अरे प्रिय मित्र ! बहुत दिनोंके बाद मिले हो । क्यों नहीं मुझसे गले मिलते ? क्यों मुझसे बात नहीं करते ? क्यों आदरके साथ मेरे कुशलसमाचार नहीं पूछते ?' इस प्रकार बड़े प्रेमसे बोलनेपर भी धन्वन्तरि मुनि आत्मध्यानमें लीन रहे। इससे रुष्ट होकर, विश्वानुलोम उसी पहाड़के समीप एक कुटीमें रहनेवाले जटाधारी साधुके निकट
१. मारयित्वा।
२. आलिंगनम् । ३. कुशलम् । ४. एकान। ५. तुणगृहम् ।