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तत्रैष समाधिः
सोमदेव विरचित
ब्रह्मचर्योपपन्नानामभ्यात्माचारचेतसाम् । मुनीनां स्नानमप्राप्तं दोषे त्वस्य विधिर्मतः ॥ १२६॥ संगे कापालिकोत्रेयीचाण्डालशबरादिभिः । औप्लुत्य दण्डवत्सम्यग्जपेन्मन्त्रमुपोषितः ॥१२७॥ एकान्तरं त्रिरात्रं वा कृत्वा स्नात्वा चतुर्थके । दिने शुद्धयन्त्यसंदेहमृतौ व्रतगताः स्त्रियः ॥१२८॥ यदेवांगमशुद्धं स्यादद्भिः शोध्यं तदेव हि ।
गुलौ सर्पदष्टायां न हि नासा निकृत्यते ॥ १२६ ॥ निष्पन्दीदिविधौ वक्रे यद्यपूतत्वमिष्यते । तर्हि वक्रापवित्रत्वे शौचं नारभ्यते कुतः ॥ १३०॥
[ कल्प ३, श्लो० १२६
उनका समाधान
ब्रह्मचर्य से 'युक्त और आत्मिक आचारमें लीन मुनियोंके लिए स्नानकी आवश्यकता नहीं है। हाँ, यदि कोई दोष लग जावे तो उसका विधान है | यदि मुनि हाथमें खोपड़ी लेकर माँगने वाले वाममार्गी कापालिकोंसे, रजस्वला स्त्रीसे, चाण्डाल और म्लेच्छ वगैरहसे छू जाये तो उसे स्नान करके, उपवास पूर्वक कायोत्सर्गके द्वारा मंत्रका जप करना चाहिए || १२६ - १२७॥
भावार्थ - साधारणतः मुनिके लिए स्नान करनेका निषेध है; क्योंकि मुनि अखण्ड ब्रह्मचारी होते हैं तथा आरम्भ आदिसे दूर रहते हैं । हाँ, यदि ऊपर कही गई कोई अशुद्धि हो जाये तो वे स्नान करके बादको उसका प्रायश्चित्त करते हैं ।
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ऋतुमती स्त्रियोंकी शुद्धि
जो स्त्रियाँ व्रताचरण करती हैं, वे ऋतुकालमें एकाशन अथवा तीन दिनका उपवास करके, चौथे दिन स्नान करके निःसन्देह शुद्ध हो जाती हैं ॥१२८॥
[ इस प्रकार मुनियोंके स्नान करनेका कारण बतलाकर ग्रन्थकार आचमन विधिकी आलोचना करते हैं-]
शरीरका जो भाग अशुद्ध हो, जलसे उसीकी शुद्धि करनी चाहिए। अंगुलियोंमें साँपके काट लेनेपर नाकको नहीं काटा जाता है ॥ १२९ ॥ अधोवायुका निस्सरण आदि करनेपर यदि मुखमें अपवित्रता मानते हो तो मुखके अपवित्र होनेपर अधोभागमें शौच क्यों नहीं करते हो ॥१३०॥
भावार्थ- ब्राह्मण धर्ममें विहित कर्म करनेसे पहले शरीरकी शुद्धि के लिए तीन बार हाथपर जलपान किया जाता है। इसे ही आचमन कहते हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि शरीरका जो भाग अशुद्ध हो जलसे उसीकी शुद्धि करनी चाहिए, जलपान कर लेनेसे अशुद्ध शरीर कैसे शुद्ध हो सकता है ? यदि मुख अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए और यदि कोई दूसरा अंग अशुद्ध हो तो उसकी शुद्धि करनी चाहिए। सबकी शुद्धि जलपान मात्रसे तो नहीं हो सकती । अतः आचमन करना व्यर्थ है ।
१. अयोग्यम् । २. ऋतुमती । ३. स्नात्वा । ४ पर्द कुत्सिते शब्दे । पर्दने सति चेदाचमनं क्रियते तहि मुखोच्छिष्टे सति अधोभागे शौचं ( कुतो न ) क्रियते ।