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किया।
सोमदेव विरचित
[ श्लो० २०शानादवगमोऽर्थानां न तत्कार्यसमागमः । तर्षापकर्षयोगि स्यादृष्टमेवान्यथा पयः ॥२०॥ ज्ञानहीने क्रिया पुसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव कि लभ्या फलश्रीनष्टदृष्टिभिः ॥२१॥ शानं पङ्गौ क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकद्वयम् ।
ततो शानक्रियाश्रद्धात्रयं तत्पदकारणम् ॥२२॥ उक्तंच
"हतं ज्ञानं कियाशून्यं हता चाज्ञानिनः किया । धावनप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पङ्गकः ॥२३॥ .. ... ... निःशङ्कात्मप्रवृत्तेः स्याद्यदि मोक्षसमीक्षणम् । ठकस्नाकृतां पूर्व पश्चात्कोलेष्वसौ भवेत् ॥२४॥ अव्यक्तनरयोनित्यं नित्यव्यापिस्वभावयोः ।
विवेकेन कथं ख्याति सांख्यमुख्याः प्रचक्षते ॥२५॥ [अब प्राचार्य बिना ज्ञानको क्रियाको और बिना क्रियाके ज्ञानको व्यर्थ बतलाते हैं-]
२. ३. ज्ञानसे पदार्थोंका बोध होता है, किन्तु उन्हें जानने मात्रसे उन पदार्थोंका कार्य होता नहीं देखा जाता । यदि ऐसा होता तो पानीके देखते ही प्यास बुझ जानी चाहिए ॥२०॥ तथा ज्ञानहीन पुरुषकी क्रिया फलदायी नहीं होती। क्या अन्धे मनुष्य वृक्षकी छायाकी तरह उसके फलोंकी शोभाका आनन्द ले सकते हैं ? ॥२१॥ श्रद्धाहीन पंगुका ज्ञान और श्रद्धाहीन अन्धेकी क्रिया दोनों ही कार्यकारी नहीं हैं। अतः ज्ञान, चारित्र और श्रद्धा तीनों ही मिलकर मोक्षका कारण हैं ॥२२॥
कहा भी है
क्रिया-आचरणसे शून्य ज्ञान भी व्यर्थ है और अज्ञानीकी क्रिया भी व्यर्थ है। देखो, एक जंगलमें आग लगनेपर अन्धा मनुष्य दौड़ भाग करके भी नहीं बच सका, क्योंकि वह देख नहीं सकता था और लँगड़ा मनुष्य आगको देखते हुए भी न भाग सकनेके कारण उसीमें जल मरा ॥२३॥
[कौल मतवादियोंको आचार्य उत्तर देते हैं-]
४. यदि मद्य-मांस वगैरहमें निःशङ्क होकर प्रवृत्ति करनेसे मोक्षकी प्राप्ति हो सकती तो सबसे पहले तो ठगों और मांस बेचनेवाले कसाइयोंकी मुक्ति होनी चाहिए। उनके पीछे कौल मतवालोंकी मुक्ति होना चाहिए ॥२४॥
[इस प्रकार केवल ज्ञान या केवल चारित्रसे मुक्तिकी प्राप्तिको असम्भव बतलाकर आगे आचार्य सांख्य मतकी आलोचना करते हैं-]
५. सांख्य मतमें प्रकृति और पुरुष दोनों व्यापक और नित्य माने गये हैं। ऐसी अवस्थामें उनमें भेद ग्रहण कैसे सम्भव है ? अर्थात् व्यापक और नित्य होनेसे प्रकृति और पुरुष दोनों सदासे मिले हुए ही रहते हैं । तब उनमें भेद ग्रहणका कथन सांख्याचार्य कैसे करते हैं ॥२५॥
१. चेत् ज्ञानमात्रेण पदार्थस्यावगमो भवति तर्हि दृष्टं ज्ञातमात्रं जलं पानं विनापि तृषाछेदकं भवति, न च तथा दृश्यते । २. 'उक्तं च-हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हतो चाज्ञानिनां क्रिया। धावन किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पङ्गुलः।'-तत्त्वा० वा०, पृ० १४ । ३. भेदेन ।
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