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सोमदेव विरचित
[श्लो०४८
इसका अन्तरंग कारण तो दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम है। मोहनीय कर्मके भेदोंमेंसे दर्शन मोहनीय कर्म सम्यक्त्व गुणका घातक है । जबतक इस कर्मका उदय रहता है तबतक सम्यक्त्वगुण प्रकट नहीं होता। जब उस कर्मका उपशम कर दिया जाता है अर्थात् कुछ समयके लिए उसे इस योग्य कर दिया जाता है कि वह अपना फल नहीं दे सकता तब जीवके प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्रकट होता है। इसके प्रकट होते ही जीवकी अन्तर्दृष्टिमें ऐसी निर्मलता आजाती है कि वह अपने सच्चे हित और सच्चे हितकारीको पहचाननेमें भूल नहीं करता। सच्चा देव कौन है, सच्चे शास्त्र कौन हैं और सच्चे तत्त्व कौन हैं, इसकी उसे परख हो जाती है और उनपर वह ऐसी दृढ़ आस्था रखता है कि कोई उसे उसकी आस्थासे विचलित नहीं कर सकता। साथ-साथ सम्यक्त्वके प्रभावसे उसके अन्दर प्रशम आदि अनेक गुण प्रकट होते हैं। काम क्रोधादि विकारोंसे उसकी रुचि हट जाती है । जो उसको हानि पहुँचाते हैं उन जीवोंको भी सतानेके उसके भाव नहीं होते। यह प्रशम गुण कहलाता है । धर्माचरण करनेमें उसे खूब उत्साह रहता है और जो अन्य धर्मात्मा होते हैं उनसे वह खूब प्रेम करता है। यह संवेग गुण कहलाता है । सब जीवोंसे वह मित्रकी तरह व्यवहार करता है। इसे अनुकम्पा कहते हैं। जीव एक स्वतः सिद्ध पदार्थ है। वह अनादिकालसे कमोंसे बद्ध है । वह उनका कर्ता भी है और भोक्ता भी है। और जब वह उन कोंको नष्ट कर देता है तो मुक्त हो जाता है इस तरहका उसे विश्वास रहता है । इसे आस्तिक्य कहते हैं। असल में सम्यक्त्व आत्माका गुण है, और वह गुण दर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे अनादिकालसे मिथ्यारूप हो रहा है। उसके मिथ्यारूप होनेसे जीवकी रुचि विषय भोग वगैरह बुरे कामोंमें तो लगती है, किन्तु जिनसे उसका सच्चा और स्थायी कल्याण होता है उन कार्योंमें या कार्योंका उपदेश देनेवालोंमें नहीं होती । जब काललब्धि वगैरहका योग मिल जाता है और संसार समुद्रका किनारा करीब आनेको होता है तब विना प्रयत्न किये ही अन्तर्मुहर्तके लिए दर्शन मोहनीय कर्मका उपशम हो जानेसे उपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है । इसमें बाह्य निमित्त अनेक होते हैं। किन्हींको जिन विम्बके दर्शनसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। किन्हींको जिन भगवान्की महिमाके देखनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। किन्हींको जैन धर्मका उपदेश सुननेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। किन्हीं देवताओंको अन्य देवताओंका ऐश्वर्य देखकर और उसे धर्मका फल समझनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । किन्हींको पूर्वजन्मका स्मरण हो जानेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है और किन्हीं नारकी वगैरहको कष्ट भोगनेसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हो जाती है । अन्य भी अनेक बाह्य कारण शास्त्रोंमें बतलाये हैं। इन अन्तरंग और बाह्य कारणोंके मिलनेपर सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है। जैसे शराब या धतूरेके नशेसे बेहोश मनुप्यका जब नशा उतर जाता है तो उसे जैसा होश होता है, वैसे ही दर्शन मोहनीयके उदयसे जीवमें एक विचित्र प्रकारका नशा-सा छाया रहता है, जिससे उसे बराबर बुद्धिभ्रम बना रहता है। अनेक शास्त्रोंका पण्डित हो जानेपर भी उसकी बुद्धिका भ्रम दूर नहीं होता। किन्तु जैसे ही दर्शन मोहका उदय शान्त हो जाता है वसे ही उसका वह बुद्धि भ्रम हट जाता है और उसकी दृष्टि ठीक दिशामें लग जाती है। इसीसे उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यग्दर्शनके विषयभूत देव आप्त वगैरहका तथा आठ अंगोंका स्वरूप आगे ग्रन्थकार स्वयं बतलायेंगे।