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उपासकाध्ययन त्रैलोक्यं जठरे यस्य यश्च सर्वत्र विद्यते । किमुत्पत्तिविपत्ती स्तां क्वचित्तस्येति चिन्त्यताम् ॥६४॥ कपर्दी दोषवानेष निःशरीरः सदाशिवः। अप्रामाण्यादशक्तश्च कथं तत्रागमागमः ॥६५॥ परस्परविरुद्धार्थमीश्वरः पञ्चभिर्मुखैः । शास्त्रं शास्ति भवेत्तत्र कतमार्थविनिश्चयः ॥६६।। सदाशिवकला रुद्रे यद्यायाति युगे युगे।
कथं स्वरूपभेदः स्यात्काञ्चनस्य कलास्विव ॥६७॥ ही हैं । आश्चर्य है, फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है। विष्णुके पिता चसुदेव थे, माता देवकी थी, और वे स्वयं राजधर्मका पालन करते थे। आश्चर्य है, फिर भी वे देव माने जाते हैं । सोचनेकी बात है कि जिस विष्णुके उदरमें तीनों लोक बसते हैं और जो सर्वव्यापी है, उसका जन्म और मृत्यु कैसे हो सकते हैं ? ॥६०-६४॥
महेशको अशरीरी और सदाशिव मानते हैं, और वह दोषोंसे भी युक्त है। ऐसी अवस्थामें न तो वह प्रमाण माना जा सकता है और न वह कुछ उपदेश ही दे सकता है; क्योंकि वह दोषयुक्त है और शरीरसे रहित है । तब उससे आगमकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?, जब शिव पाँच मुखोंसे परस्परमें विरुद्ध शास्त्रोंका उपदेश देता है तो उनमेंसे किसी एक अर्थ का निश्चय करना कैसे संभव है ॥६५-६६॥
कहा जाता है कि प्रत्येक युगमें रुद्रमें सदाशिवकी कला अवतरित होती है। किन्तु जैसे सुवर्ण और उसके टुकड़ोंमें कोई भेद नहीं किया जा सकता, वैसे ही अशरीरी सदाशिव और सशरीर रुदमें कैसे स्वरूपभेद हो सकता है ॥६७॥
भावार्थ-शिव या रुद्रकी उपासना वैदिक कालसे भी पूर्वसे प्रचलित बतलाई जाती है। शैवोंके चार विभिन्न सम्प्रदाय हैं—शैव, पाशुपत, कालमुख और कापालिक । इन्हींके मूल ग्रन्थोंको शैवागमके नामसे पुकारते हैं। इन शैव मतोंका प्रचार भिन्न-भिन्न प्रान्तोंमें था । शैव सिद्धान्तका प्रचार तमिल देशमें और वीर शैव मतका प्रचार कर्नाटक प्रान्तमें था । पाशुपत मतका केन्द्र गुजरात और राजपूताना था । कहा जाता है.कि शिवने अपने भक्तोंके उद्धारके लिए अपने पाँच मुखोंसे २८ तंत्रोंका आविर्भाव किया। इनमें १० तंत्र द्वैतमूलक हैं और १८ द्वैताद्वैत प्रधान हैं। देवताके स्वरूप, गुण, कर्म आदिका जिसमें चिन्तन हो तद्विषयक मंत्रोंका उद्धार किया गया हो, उन मंत्रोंको यंत्रमें रखकर देवताका ध्यान तथा उपासनाके पाँचों अंग व्यवस्थित रूपसे दिखलाये गये हों, उन ग्रन्थोंको तंत्र कहते हैं। तंत्रोंकी विशेषता क्रिया है। तांत्रिक आचार एक रहस्यपूर्ण व्यापार है। गुरुके द्वारा दीक्षा ग्रहण करनेके समय ही शिष्यको इसका रहस्य समझाया जाता है । शैव सिद्धान्तमें चार पाद हैं-विद्यापाद, क्रियापाद, योगपाद और चर्यापाद । इनमेंसे अन्तके तीन पाद क्रियापरक हैं और विद्यापाद
१. यो रागादि दोषवान् संसारी शिवः स तावदप्रमाणं, तत्कृत आगमोऽपि प्रमाणं न भवति । यस्तु सदाशिवः स आगमं कर्तुमशक्तः जिह्वाकण्ठाद्युपकरणाभावात् । पद्मचन्द्र कोषमें आगमका अर्थ करते हुए एक श्लोक दिया है-आगतं शिववक्तृभ्यो गतं च गिरजाश्रुतौ । मतं च वासुदेवस्य तस्मादागममुच्यते ।। अर्थात्--शिवजीके मुखसे आया,पार्वतीके कानमें गया,विष्णुजीने मान लिया, इसीलिए आगम हुआ।