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सोमदेव विरचित
[ श्लो० ६८भैक्षनर्तननग्नत्वं पुरत्रयविलोपनम् ।
ब्रह्महत्याकपालित्वमेताः क्रीडाः किलेश्वरे ॥६८|| तत्त्वज्ञानसे सम्बन्ध रखता है। विद्या अर्थात् ज्ञानके तीन विषय हैं-(१) पति अर्थात् स्वतंत्र शिव अथवा परमेश्वर तत्त्व, (२) पशु अर्थात् परतंत्र जीव और ( ३ ) पाश अर्थात् बन्धके कारण । मुक्त जीव भी परमेश्वरके परतंत्र रहते हैं । यद्यपि पशुओंकी अपेक्षा उनमें स्वतंत्रता रहती है फिर भी वे परमेश्वरके प्रसादसे ही मुक्ति लाभ करनेमें समर्थ होते हैं, इसलिए वे शिवके परतंत्र हैं। शिव नित्य मुक्त है। उसका शरीर पञ्चमंत्रात्मक है। वह पाँच मुखोंके द्वारा पाँच आम्नायोंका प्रवर्तन कर्ता है। इसी बातको लेकर ग्रन्थकारने ऊपर शैवमतकी आलोचना की है। जब शिवको उपास्य और उपासक रूपसे क्रीड़ा करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है तब परम शिवमें कम्पन उत्पन्न होता है और उससे वह दो रूप हो जाता है-चैतन्यात्मक रूपका नाम शिव और दूसरे अंशका नाम जीव होता है। शैव सिद्धान्तके अनुसार शिव, शक्ति और बिन्दु ये तीन रत्न माने जाते हैं। ये ही समस्त तत्त्वोंके अधिष्ठाता हैं । शुद्ध जगत्का कर्ता शिव, करण शक्ति और उपादान बिन्दु है। शक्ति परम शिवसे अभिन्न होकर रहनेवाला विशेषण है। न तो शिव शक्तिसे भिन्न है न शक्ति शिवसे भिन्न है। शक्तिके क्षोभ मात्रसे परम शिवके दो रूप हो जाते हैं एक उपास्य रूप, जिसका नाम है लिंग ( शिव ) और दूसरा उपासक रूप, जिसका नाम है 'अंग' (जीव)। परम शिवकी द्विरूपताके समान शक्तिमें भी दो रूप उत्पन्न होते हैं, लिंगकी शक्तिका नाम 'कला' है जो प्रवृत्ति उत्पन्न करती है। कला शक्तिसे जगत् परमशिवसे प्रकट होता है । सदाशिवकी यह कला रुद्रोंमें अवतरित होती है जो भिन्न भिन्न रूपवाले होते हैं ।
भिक्षा माँगना, नाचना, नग्न होना, त्रिपुरको भस्म करना, ब्रह्म हत्या करना और हाथमें खप्पर रखना ये सदाशिव ईश्वरकी क्रीड़ायें हैं ॥६८॥
भावार्थ-शिवका हाथमें खप्पर लेकर भिक्षा माँगना, नंगे घमना और ताण्डव नृत्य करना तो प्रसिद्ध ही है । शिवकी उपासना भी इसी प्रकारसे की जाती है। साधकको महेश्वरकी पूजाके समय हंसना, गाना, नाचना, जीभ और तालुके संयोगसे बैलकी आवाजके समान हुडहुड़ शब्द करना होता है । इसीके साथ भस्मस्नान, भस्मशयन, जप और प्रदक्षिणाको पंचविध व्रत कहते हैं। ये सब कार्य शिवको बहुत प्रिय बतलाये जाते हैं । त्रिपुरको भस्म करनेकी कथा निम्न प्रकार है-एक बार इन्द्रके साथ सब देवता महेश्वरके पास आये और कहने लगे कि बाण नामका एक दानव है उसका त्रिपुर नामका नगर है। उससे डरकर हम आपकी शरणमें आये हैं,
आप हमारी रक्षा करें। शिवजीने उन्हें रक्षाका आश्वासन दिया और यह विचारने लगे कि त्रिपुरको कैसे नष्ट करना चाहिये । शिवजीने नारदजीको बुलाया और उनसे कहा कि हे नारद ! तुम दानवेन्द्र बाणके त्रिपुर नगरको जाओ । वहाँकी स्त्रियोंके तेजसे वह नगर आकाशमें डोलता है। तुम वहाँ जाकर उनकी बुद्धि विपरीत करदो। नारदने वहाँ जाकर अपने मिथ्या उपदेशसे वहाँकी स्त्रियोंका मन पतिव्रत धर्मसे विचलित कर दिया। इससे उनका तेज जाता रहा और पुरमें छिद्र होगया । तब शिवजीने त्रिपुरको अपने बाणसे जला डाला। इसके जलनेका दर्दनाक
१. भिक्षा ।