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सोमदेव विरचित
[श्लो० ३०भेदोऽयं यद्यविद्या स्याद्वैचित्र्यं जगतः कुतः । जन्ममृत्युसुखप्रायैर्विवतैर्मानवर्तिभिः ॥३०॥ शून्यं तत्त्वमहं वादी साधयामि प्रमाणतः । इत्यास्थायां विरुध्येत सर्वशून्यत्ववादिता ॥३१॥ वोधो वा यदि वानन्दो नास्ति मुक्तौ भवोद्भवः ।
सिद्धसाध्यतयास्माकं न काचित्ततिरोक्ष्यते ॥३२॥ इसका निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो उसी दिनका जन्मा हुआ बच्चा माताके म्तनोंको पीने की चेष्टा करता हुआ देखा जाता है, और यदि उसके मुंहमें स्तन लगा दिया जाता है तो झट पीने लगता है। यदि बच्चेको पूर्व जन्मका संस्कार न होता तो पैदा होते ही उसमें ऐसी चेष्टा नहीं होनी चाहिए थी। यह सब पूर्व जन्मका संस्कार ही है। तथा राक्षस व्यन्तरादिक देव देखे जाते हैं जो अनेक बातें बतलाते हैं। पूर्व जन्मके स्मरणकी कई घटनाएँ सच्ची पाई गई हैं, तथा सबसे बड़ी बात तो यह है कि यदि चैतन्य भूतोंके मेलसे पैदा होता है तो उसमें भूतोंका धर्म पाया जाना चाहिए था, क्योंकि जो वस्तु जिन कारणोंसे पैदा होती है उस वस्तुमें उन कारणोंका धर्म पाया जाता है, जैसे मिट्टीसे पैदा होनेवाले घड़ेमें मिट्टीपना रहता है, धागोंसे बनाये जाने वाले वस्त्रमें धागे पाये जाते हैं, किन्तु चैतन्यमें पंचभूतोंका कोई धर्म नहीं पाया जाता । पंच भूत तो जड़ होते हैं उनमें जानने-देखनेकी शक्ति नहीं होती, किन्तु चैतन्यमें जानने देखनेकी शक्ति पाई जाती है । तथा यदि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म है तो मोटे शरीरमें अधिक चैतन्य पाया जाना चाहिए था और दुबले शरीरमें कम । किन्तु इसके विपरीत कोई-कोई दुबले-पतले बड़े मेधावी
और ज्ञानी देखे जाते हैं और स्थूल मनुष्य निर्बुद्धि होते हैं । तथा यदि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म है तो शरीरका हाथ-पैर आदि कट जानेपर उसमें चैतन्यकी कमी हो जानी चाहिए; क्योंकि पंचभूत कम हो गये हैं किन्तु हाथ-पैर वगैरहके कट जानेपर भी मनुष्यके ज्ञानमें कोई कमी नहीं देखी जाती। इससे सिद्ध है कि चैतन्य पंचभूतोंका धर्म नहीं है बल्कि एक नित्य द्रव्य आत्माका ही धर्म है । अतः आत्मा एक स्वतन्त्र द्रव्य है।
[अब आचार्य वेदान्तियोंके मतकी आलोचना करते हुए उनसे पूछते हैं-]
९. यदि यह भेद अविद्याजन्य है-अज्ञान मूलक है, तो संसारमें वैचित्र्य क्यों पाया जाता है, क्यों कोई मरता है और कोई जन्म लेता है ? कोई सुखी और कोई दुखी क्यों देखा जाता है ? ॥३०॥
[अब आचार्य शून्यवादी बौद्धके मतकी आलोचना करते हैं-]
१०. 'मैं शून्य तत्त्वको प्रमाणसे सिद्ध करता हूँ', ऐसी प्रतिज्ञा करनेपर सर्वशून्यवादका स्वयं विरोध हो जाता है ॥३१॥
भावार्थ-आशय यह है कि शून्यतावादी अपने मतकी सिद्धि यदि किसी प्रमाणसे करता है तो प्रमाणके वस्तु सिद्ध हो जानेसे शून्यतावाद सिद्ध नहीं हो सकता। और यदि बिना किसी प्रमाणके ही शन्यतावादको सिद्ध मानता है तब तो दुनियामें ऐसी कोई वस्तु ही न रहेगी जिसे सिद्ध न किया जा सके। और ऐसी अवस्थामें बिना प्रमाणके ही शन्यतावादके विरुद्ध अशून्यताबाद भी सिद्ध हो जायेगा । अतः सर्वशून्यतावाद भी ठीक नहीं है।