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उपासकाध्ययन . तुच्छाभावो न कस्यापि हानिदीपस्तमोऽन्वयी। धेरादिषु धियो हानौ विश्लेषे सिद्धसाध्यता ॥४०॥ तदावृतिहतौ तस्य तपनस्येव दीधितिः। कथं न शेमुषी सर्व प्रकाशयति वस्तु यत् ॥४१॥ ब्रह्मैकं यदि सिद्धं स्यान्निस्तरङ्गं कुतश्च न ।।
घटाकाशमिवाकाशे तत्रदं लीयतां जगत् ॥४२॥ अथ मतम्
एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः। एकधानेकधा चापि दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥४३॥
[ ब्रह्म वि०, १-१] और परम अपकर्ष अर्थात् अति हानि और अति वृद्धि भी देखी जाती है । जैसे परिमाणका परम प्रकर्ष आकाशमें पाया जाता है ॥ ३९ ॥
शायद कहा जाये कि इस नियमके अनुसार तो किसीमें बुद्धिका बिल्कुल अभाव भी हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि किसी भी वस्तुका तुच्छाभाव नहीं होता, अर्थात् वह चीज एक दम नष्ट हो जाये और कुछ भी शेष न रहे ऐसा नहीं होता। दीपक जब बुझ जाता है तो प्रकाश अन्धकार रूपमें परिवर्तित हो जाता है । तथा पृथिवी वगैरहमें बुद्धिकी अत्यन्त हानि देखी जाती है । क्योंकि पृथिवीकायिक आदि जीव पृथिवी आदि रूप पुद्गलोंको अपने शरीर रूप से ग्रहण करता है और मरण होनेपर उन्हें छोड़ देता है। अतः जीवके वियुक्त हो जाने पर उन पृथिवी आदि रूप पुद्गलोंमें बुद्धिका सर्वथा अभाव हो जाता है। इसमें तो सिद्ध साध्यता है ॥४०॥
अतः जैसे सूर्यके ऊपरसे आवरणके हट जानेपर उसकी किरणें समस्त जगत्को प्रकाशित करती हैं। वैसे ही बुद्धिके ऊपरसे कर्मोंका आवरण हट जाने पर वह समस्त जगत्को क्यों नहीं जान सकती, अवश्य जान सकती है ॥४१॥ [अब आचार्य ब्रह्माद्वैतकी आलोचना करते हैं--]
१४. यदि केवल एक ब्रह्म ही है तो वह निस्तरंग–सांसारिक भेदोंसे रहित क्यों नहीं है अर्थात् यह लोक भिन्न क्यों दिखाई देता है। तथा जैसे घटके फूट जानेपर घटके द्वारा छेका गया आकाश आकाश में मिल जाता है,वैसेही इस जगत्को भी उसी ब्रह्ममें मिल जाना चाहिए ॥४२॥ ___ शायद कहा जाये कि जैसे चंद्रमा एक होते हुए भी जलमें प्रतिविम्ब पड़नेपर अनेक रूप दिखाई देता है उसी तरह एक ही ब्रह्म भिन्न भिन्न शरीरोंमें पाया जानेसे अनेक रूप दिखाई देता है ॥४३॥
१. 'नन्वेवं दोषावरणयोर्हानेरतिशायनात् निश्शेषतायां साध्यायां बुद्धेरपि किन्न परिक्षयः स्याद्विशेषाभावादतोऽनकान्तिको हेतुरित्यशिक्षितलक्षितं चेतनादि-गुणव्यावृत्तेः सर्वात्मना पृथिव्यादेरभिमतत्वात्' । -अष्टसहस्रो, पृ० ५२ । २. यदि एकं ब्रह्मवास्ति तहि अयं लोकः पृथक् किं दृश्यते ? तत्रैव ब्रह्मणि कथं न लीयते । ३. 'एकदण्डिदर्शनमिदं-एकमेकं हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एक वानेक वा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥'-सिद्धि वि०, पृ० ६७५ ।