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सोमदेव विरचित
[श्लो० ३६'बाह्ये ग्राह्ये मलापायात्सत्यस्वप्न इवात्मनः
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्मिन्नवस्थानममानकम् ॥३६॥ न चायं सत्यस्वप्नोऽप्रसिद्धः स्वप्नाध्यायेऽतीव सुप्रसिद्धत्वात् । तथा हि
“यस्तु पश्यति रात्र्यन्ते राजानं कुञ्जरःहयम् । सुवर्ण वृषभं गां च कुटुम्ब तस्य वर्धते" ॥३७॥ यत्र नेत्रादिकं नास्ति न तत्र मतिरात्मनि । तन्न युक्तमिदं यस्मात्स्वप्नमन्धोऽपि वीक्षते ॥३८|| जैमिन्यादेनरत्वेऽपि प्रकृष्येत मतिर्यदि।
'पराकाष्ठाप्यतस्तस्याः क्वचित्खे परिमाणवत् ॥३९॥ [अब आचार्य सांख्यमतकी आलोचना करते हैं-]
१३. जैसे वात, पित आदिका प्रकोप न रहनेपर आत्माको सच्चा स्वप्न दिखाई देता है वैसे ही ज्ञानावरण कर्म रूपी मलके नष्ट हो जानेपर आत्मा बाह्य पदार्थोंको जानता है । अतः मुक्त हो जानेपर आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है और बाह्य पदार्थोंको नहीं जानता यह कहना अप्रमाण है। यह भी अर्थ हो सकता है कि मलके नष्ट हो जाने पर आत्मा बाह्य पदार्थों को जानता है । और तब अपने इस स्वरूपमें अनन्त काल तक अवस्थित रहता है ॥ ३६॥ . शायद कहा जाये कि सच्चे स्वप्न होते ही नहीं हैं, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'स्वप्नाध्याय में सच्चे स्वप्न बतलाये हैं । जैसा कि उसमें लिखा है-'जो रात्रिके पिछले पहरमें राजा, हाथी, घोड़ा, सोना, बैल और गायको देखता है उसका कुटुम्ब बढ़ता है ॥ ३७॥
जहाँ आँख वगैरह इन्द्रियां नहीं होती वहां आत्मामें ज्ञान भी नहीं होता ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धे मनुष्यको भी स्वप्न दिखाई देता है ॥ ३८ ॥
भावार्थ-सांख्य मुक्तात्मामें ज्ञान नहीं मानता, क्योंकि वहाँ इन्द्रियाँ नहीं होती। उसकी इस मान्यताका खण्डन करते हुए ग्रन्थकारका कहना है कि इन्द्रियोंके होनेपर ही ज्ञान हो
और उनके नहीं होनेपर न हो ऐसा कोई नियम नहीं है । इन्द्रियोंके अभावमें भी ज्ञान होता देखा जाता है। स्वप्न दशामें इन्द्रियाँ काम नहीं करतीं फिर भी ज्ञान होता है और वह सच्चा निकलता है। अतः इन्द्रियोंके अभावमें भी मुक्तात्माको स्वाभाविक ज्ञान रहता ही है।
[जैमिनिके मतके अनुयायी मीमांसक कहे जाते हैं । मीमांसक लोग सर्वज्ञको नहीं मानते। वे वेदको हो प्रमाण मानते हैं । उनके मतसे वेद ही भूत और भविष्यत्का भी ज्ञान करा सकता है । उनका कहना है कि मनुष्यकी बुद्धि कितना भी विकास करे किन्तु उसमें अतीन्द्रिय पदार्थों को जाननेकी शक्ति कभी नहीं आसकती। मनुष्य यदि अतीन्द्रिय पदार्थों को जान सकता है तो केवल वेदके द्वारा ही जान सकता है। इसकी आलोचना करते हुए आचार्य कहते हैं___ आपके आप्त जैमिनि मनुष्य थे। फिर भी उनकी बुद्धि इतनी विकसित हो गई थी कि वे वेदको पूरी तरहसे जान सके। इसी तरह किसी पुरुषकी बुद्धिका विकास अपनी चरम सीमा को भी पहुँच सकता है । क्योंकि जिनकी हानि-वृद्धि देखी जाती है, उनका कहीं परम प्रकर्ष
१. कर्मक्षयात् केवलज्ञानेन बाह्ये पदार्थे ग्राह्येऽवलोकिते सति द्रष्टुरात्मनः स्वस्वरूपेऽवस्थानं स्थितिर्भवति मानरहितम् । २. प्रमाणपरीक्षामें पृ० ५८ उद्धृत । ३. प्रकृप्टा भवति । ४. परमप्रकर्षः ५. मतेः।