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विषयसूची
द्रव चीजें वस्त्रसे छानकर काममें लेना
चाहिए
भोजन के अन्तराय तथा उनके पालनका उद्देश्य, रात्रिभोजनका निषेध, भोजन में त्यागने योग्य वस्तु, असातावेदनीय कर्मके आस्रवके कारण, चारित्र मोहनीय कर्मके आस्रवके कारण, मंत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनाका स्वरूप, हिंसा में भावका महत्त्व, निष्प्रयोजन स्थावरोंके घातका निषेध, दो इन्द्रिय आदिका घात होनेपर प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्तका अर्थ, प्रायश्चित्त देनेका अधि१४६-१५३ योगका स्वरूप और भेद, शुभाशुभयोग, पापसे बचने का उपाय, रात्रिका कर्तव्य, जीवदयाका महत्व, अहिंसाव्रती मृगसेनकी कथा १५३-१६५
कार
१४३-१४६
२७वाँ कल्प
स्तेयका लक्षण, अपने कुटुम्बीका अदत्त घन भी ग्राह्य, जिस घनका कोई स्वामी नहीं उसका स्वामी राजा है, अपनी वस्तु में भी सन्देह होनेपर उसका ग्रहण करना उचित नहीं, अचौर्याणुव्रत के अतीवार, श्रीभूति पुरोहितकी कथा १६६-१७४
२८-३०वाँ कल्
हितमित वचन बोलना चाहिए, ऐसा सत्य भी न बोलो जो अपने तथा दूसरोंपर विपत्तिका कारण हो, केवली आदिके अवर्णवादसे दर्शन मोहनीय कर्मका आस्रव, मोक्षमार्गको जानते हुए भी ईर्ष्याविश न बतलानेसे ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मका आस्रव होता है, सत्याणुव्रतके अतीचार, स्त्री आदिकी कथा करनेका निषेध, वचन के सत्यासत्य आदि चार भेद, और उनका स्वरूप, अपनी प्रशंसा और परनिन्दा नहीं करना चाहिए, ऐसा करने से नीच गोत्रका बन्ध होता है, सत्य बोलने से लाभ, असत्य बोलने से हानि, वसुपर्वत और नारदकी कथा १७४-१९०
६६
३१वाँ कल्प
ब्रह्मचर्याणुव्रतका स्वरूप, ब्रह्मचर्यका व्युत्पत्यर्थ, काम भोगोंकी निन्दा, कामीका मन स्वाध्याय आदिमें नहीं लगता, आहारकी तरह भोगसेवन करना चाहिए, ब्रह्माणुव्रत के अतीचार, कामके दस गुण, क्रोधके आठ अनुचर ब्रह्मा णुव्रतसे लाभ, दुराचारी कहार१९१-२०३ पिङ्गको कथा
३२वाँ कल्प
परिग्रहका लक्षण, दस बाह्य परिग्रह, चौदह आन्तर परिग्रह, धनकी तृष्णाका निषेध, लोभीकी निन्दा, सन्तोषोकी प्रशंसा, परिग्रह में आसक्त मनुष्यका चित्त विशुद्ध नहीं होता, सत्पात्रको दान देनेवाला पक्का लोभी, लोभ में आकर परिग्रहके परिमाणसे अधिक धन संग्रह करने से व्रतहानि, अत्यधिक धनाकांक्षा से पापसंचय, लोभी पिण्याकगन्धकी कथा २०३-२१० ३३वाँ कल्प
तोन गुणव्रत, दिग्देश विरतिका स्वरूप और उससे लाभ, अर्थदण्डका स्वरूप, अनर्थदण्ड के त्याग से लाभ, अनर्थदण्डविरति के अतीचार २१०-२१२ ३४वाँ कल्प
चार शिक्षाव्रत, सामायिकका लक्षण, देवप्रतिमाके पूजनसे लाभ, देवपूजा में शुद्धिकी आवश्यकता, स्नान करने का उद्देश्य, गृहस्थको नित्य स्नान करना चाहिए, स्नानके योग्य जल, स्नान के पाँच प्रकार, गृहस्थको बाह्यशुद्धि किये बिना देवपूजनका अधिकार नहीं, मिट्टी वगैरह से शुद्धिका विधान, आचमन किये बिना घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए, स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर मौनपूर्वक पूजन करना चाहिए, होम और भूतबलिका विधान, गृहस्थोंके दो : धर्म लौकिक और पारलौकिक, जातियाँ अनादि हैं, विशुद्ध जातिवालोंके लिए जैनविधि, वही लौकिक विधि मान्य है जिससे सम्यक्त्व और व्रतमें दूषण न लगे
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