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उपासकाध्ययन शिष्याः, 'अङ्गाराजनादिवत्स्वभावादेव कालुष्योत्कर्षप्रवृत्तस्यै चित्तस्य न कुतश्चिद्विशुद्धचित्तवृत्तिः' इति जैमिनीयाः, 'सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते ततः परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावे कस्यासौ मोक्षः' इति समवाप्तसमस्तनास्तिकाधिपत्या बार्हस्पत्याः, 'परमब्रह्मदर्शनवशादशेषभेदसंवेदनाविद्याविनाशात्' इति वेदान्तवादिनः,
"नैवान्तस्तत्त्वमस्तीह न बहिस्तत्त्वमञ्जसा ।
विचारगोचरातीतः शून्यता श्रेयसी ततः ॥८॥ इति पश्यतोहराः प्रकाशितशून्यतैकान्ततिमिराः शाक्यविशेषाः, तथा 'शानसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणां नवसंख्यावसराणामात्मगुणानामत्यन्तोन्मुक्तिर्मुक्तिः' इति काणादाः । तदुक्तम्
"बहिः शरीराद्यद्र पमात्मनः संप्रतीयते ।
उक्तं तदेव मुक्तस्य मुनिना कणभोजिना" ॥६॥ ६. बुद्धके शिष्योंका कहना है कि नैरात्म्य भावनाके अभ्याससे मोक्ष होता है।
७. जैमिनीयोंका मत है कि कोयले और अंजनकी तरह स्वभावसे ही कलुषित चित्तकी चित्तवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती । अर्थात् जैसे कोयलेको घिसनेपर भी वह सफेद नहीं हो सकता, उसी तरह स्वभावसे ही मलिन चित्त विशुद्ध नहीं हो सकता ।
८. नास्तिक शिरोमणि वृहस्पतिके अनुयायी चार्वाकोंका कहना है कि धर्मी के होनेपर ही धर्मोंका विचार किया जाता है । अतः परलोकमें जानेवाली किसी आत्माके न होनेसे जब परलोक ही नहीं है तो मोक्ष होता किसको है ? अर्थात् जब आत्मा ही नहीं है तो मोक्षकी बात ही बेकार है।
९. वेदान्तियोंका मत है कि परम ब्रह्मका दर्शन होनेसे समस्त भेदज्ञानको करानेवाली अविद्याका नाश हो जाता है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।
१०. दिखाई देनेवाले विश्वका भी निषेध करनेवाले शून्यतैकान्तवादी बौद्धविशेषोंका मत है कि न कोई अन्तस्तत्त्व आत्मा वगैरह है और न कोई वास्तविक बाहरी तत्त्व घटादिक ही है, दोनों ही विचारगोचर नहीं है, अतः शून्यता ही श्रेष्ठ है ॥८॥
११. कणादके अनुयायियोंका मत है कि ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म और अधर्म, आत्माके इन नौ गुणोंका अत्यन्त अभाव हो जानेको ही मुक्ति कहते हैं। कहा भी है"शरीरसे बाहर आत्माका जो स्वरूप प्रतीत होता है, कणाद मुनिने उसीको मुक्तात्माका स्वरूप कहा है ॥९॥
१-स्य न-अ०। 'घृष्यमाणो यथाङ्गारः शुक्लतां नैति जातुचित् । विशुद्धयति कुतश्चित्तं 'निसर्गमलिनं तथा ॥ यशस्ति०, भाग २, पृ० २५० । घृष्यमाणाङ्गारवदन्तरङ्गस्य विशुद्ध्यभावे कथमिदमुदाहारि 'कुमारिलेन-विशुद्धज्ञानदेहाय''पृ० २५४ । २. चार्वाकाः । 'परलोकिनोऽभावात् परलोकाभावः'तत्त्वसंग्रह पृ० ५२३, तत्त्वोपप्लव पृ० ५८, प्रमेयकमल० पृ०, ११६, न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ३४३, सन्मति० टीका पृ० ७१ पर उद्धत । ३. 'कर्मक्लेशक्षयान्मोक्षः कर्मक्लेशा विकल्पतः । ते प्रपञ्चात् प्रपञ्चस्तु शून्यतायां निरुध्यते ॥-माध्य. का. १८-५ ।