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प्रस्तावना
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कातिकेयके अनुसार जो त्रसजीवोंसे युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओंका कभी भी सेवन नहीं करता वह दर्शनिक है । वसुनन्दि श्रावकाचारके अनुसार जो सम्यग्दृष्टि पाँच उदुम्बर और सात व्यसनोंका त्याग कर देता है वह दर्शन श्रावक है। सागारधर्मामृतमें इतना विशेष लिखा है कि अष्टमूलगुणोंमें कोई अतिचार नहीं लगने देता और निर्वाहके लिए न्यायपूर्वक आजीविका करता है वह दर्शनिक है।
अन्य ग्रन्थोंमें थावकका पाक्षिक भेद नहीं बतलाया किन्तु सागारधर्मामृतमें बतलाया है। इसीलिए उसमें निरतिचार अष्टमूलगुणोंके पालनका उल्लेख किया है; क्योंकि सातिचार अष्टमूलगुणोंका पालन पाक्षिक श्रावक करता है । अतः दर्शनिक श्रावक मद्य वगैरहका व्यापार भी नहीं करता। जो लोग मद्यादिकका सेवन करते हैं उनके साथ खान-पान नहीं करता । अचार मरब्बे नहीं खाता। एक दिन रातके बादका दही मट्टा नहीं खाता। फफूंदी वस्तुएँ नहीं खाता, चमड़े के बरतनमें रखा घी, तेल, हींग या पानी काममें नहीं लाता। बाह्य दवाके रूप में भी मधुका प्रयोग नहीं करता । अनजान फल और बिना खुली फलियां नहीं खाता। रात्रिमें रोग दूर करनेके लिए भी दुग्ध, फलादिकका सेवन नहीं करता । पानीको साफ-सुथरे वस्त्रसे छानकर ही काममें लेता है और छने पानीको भी प्रत्येक दो महर्तके बाद छानकर हो काममें लाता है। बिनछानीको उसी जलाशयमें पहुँचा देता है जिसका पानी होता है। मनोविनोदके लिए भी कभी जुआ नहीं खेलता। गायन,नर्तन और वादनमें अत्यासक्ति नहीं रखता । वेश्याके घर आता-जाता भी नहीं। किसी कुटुम्बीका भी धन अनुचित रीति से नहीं लेता । लकड़ी वगैरहपर अंकित प्राणियोंके चित्रोंको भी नहीं काटता । परनारीगमन तो दूर रहा, किसी लड़कीसे गान्धर्व-विवाह भी नहीं करता । वही लोकाचार पालता है जो उसके आचारके प्रतिकूल नहीं होता। धर्मपत्नी में ही सन्तानोत्पादनका प्रयत्न करता है। सन्तानको शिक्षित और आचारवान बनानेका प्रयत्न
करता है। इस तरह सागारधर्मामत तथा लाटोसंहितामें विस्तारसे दर्शनिक धावकका आचार बतलाया है। २. व्रतप्रतिमा-जो पांच अणव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंका निरतिचार पालन करता है वह
प्रतिक श्रावक है। इन व्रतोंका वर्णन पहले कर आये हैं। सामायिक- जो तोनों सन्ध्याओंको मन वचन और कायको शद्ध करके सामायिक करता है वह सामायिक प्रतिमाका धारी है। वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है, जो शुद्ध होकर जिनमन्दिरमें या अपने घर में जिनबिम्बके सम्मुख या अन्य पवित्र स्थानमें पूर्व दिशा या उत्तर दिशाकी ओर मुख करके प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओंको जिनधर्म, जिनवाणी, जिनबिम्ब, जिनालय और परमेष्ठीकी वन्दना करता है वह सामायिक प्रतिमाका धारी है। तथा जो कायोत्सर्गपूर्वक खड़े होकर लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, संयोग-वियोग, तण-कंचन, चन्दन-विसौली में समबुद्धि रखता है तथा मनमें पंचनमस्कार मन्त्रको धारण करके अष्ट प्रातिहार्यविशिष्ट जिन भगवान्का, सिद्धपरमेष्ठीका अथवा अपनी आत्माका ध्यान करता है उसकी
सामायिक उत्तम है। इसमें पहली प्रकारकी सामायिकको जप और दूसरीकों ध्यान समझना चाहिए। ४. प्रोषधोपवासप्रतिमा- प्रत्येक मासके चारों पर्वोमें अपनी शक्तिको न छिपाकर जो प्रोपधोपवासका
नियम लेता है वह श्रावक चतुर्थ प्रतिमाका धारी है। स्वामीकातिकेयानप्रेक्षामें लिखा है, सप्तमी और त्रयोदशीके दिन अपराहमें जिनमन्दिर में जाकर सामायिक करके चारों प्रकारके आहारका त्याग करके उपवासका नियम कर ले और घरका सब काम-धाम छोड़कर रात्रिको धर्मचिन्तनपूर्वक बितावे । सुबहको उठकर क्रिया कर्म करके शास्त्र-स्वाध्याय करते हुए अष्टमी या चतुर्दशीका दिन बितावे । फिर सामायिक करके उसी तरहसे रात्रिको बितावे । प्रातः उठकर सामायिक करे, फिर पूजन करे, फिर पात्रदान देकर भोजन करे। इसका नाम प्रोषधोपवास है। वसुनन्दि श्रावकाचारमें इसे उत्कृष्ट प्रोषधोपवास बतलाया है, 'मध्यम प्रोषधोपवासमें केवल पानी लिया जाता है। और कोई हलका भोजन एक बार करना जघन्य उपवास बतलाया है। उपवासके दिन स्नान वगैरहका निषेध किया है। इसीलिए
१. गा० २७४-२७८ । २. गा० ३७३-३७६ ।