________________
प्रस्तावना
है। अतः उनके मतसे वह अपने लिए भोजन भी नहीं बना सकता। ९. परिग्रहत्याग-परिग्रहके त्यागको परिग्रहत्यागप्रतिमा कहते हैं । वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है, जो
वस्त्रके सिवा शेष परिग्रहको छोड़ देता है और उस वस्त्रसे भी मोह नहीं रखता वह नवम श्रावक है। सागारधर्मामतमें परिग्रहके त्यागने की विधि बतलायी है। लोटीसंहितामें लिखा है, नौवीं प्रतिमासे पहले श्रावक सुवर्ण आदिका परिमाण घटाता जाता है, किन्तु नौंवीसे तो उसे बिलकुल ही त्याग देता है। अपने शरीरके लिए वस्त्र, मकान वगैरह तथा धर्मके साधन मात्र रखकर शेष सबका त्याग कर देता है। इससे पहले वह अपनी जमीन-जायदादका स्वामी बना रहता है किन्तु नौवींसे जीवनपर्यन्तके लिए उस
सबको त्याग कर निःशल्य हो जाता है। १०. अनुमतित्याग-कृषि आदि आरम्भमें, परिग्रहमें तथा विवाह आदि लौकिक कार्यों में अनुमति देने के त्याग
को अनुमतित्यागप्रतिमा कहते हैं । सागौरधर्मामतमें दशम श्रावकको विशेष क्रिया बतलायो है। लिखा है. दशम श्रावक चैत्यालयमें बैठकर स्वाध्याय करता है और मध्याह्न कालको सामायिक करनेके पश्चात बुलानेपर अपने या अन्य श्रावकोंके घर भोजन कर लेता है। लाटीसंहितामें इतना विशेष लिखा है, दसवीं प्रतिमा तक श्रावकका कोई खास वेष नहीं होता। चोटी जनेऊ चाहे तो रख सकता है, न चाहे नहीं भी रखे । यथा,
"मच यावचथालितो नापि वेषधरो मनाक ।
शिखासूत्रादि दध्याद्वा न दभ्यावा यथेच्छया ॥४९॥" ११. उद्दिष्टत्याग- रत्नकरण्डश्रावकाचारमें लिखा है, घरको त्याग कर मुनियोंके पास वनमें चला जाये
और वहाँ गुरुके सामने व्रत धारण करके भिक्षा भोजन करे, तपस्या करे और खण्डवस्त्र अपने पास रखे वह उद्दिष्टत्यागी श्रावक है। वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है, उद्दिष्ट श्रावकके दो प्रकार हैंएक, एक वस्त्र रखता है और दूसरा केवल लंगोटी रखता है । पहला अपने बाल छुरे या कैंचीसे बनवाता है और उठते-बैठते समय उपकरणसे स्थान वगैरहको साफ कर लेता है। हायमें या पात्र में भोजन करता है और चारों पर्वो में नियमसे उपवास करता है।
.दूसरा श्रावक भी ये ही क्रियाएं पालता है, अन्तर इतना है कि वह नियमसे केशलोंच करता है. पोछी रखता है और हाथमें भोजन करता है। श्रावकोंको दिनमें प्रतिमायोग धारण करनेका, वीरचर्याका अर्थात मुनिको तरह स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करनेका, त्रिकालयोगका - गरमीमें पर्वतके शिखरपर, बरसातमें वृक्षके तले और सर्दी में नदीके किनारे ध्यान करनेका तथा सिद्धान्त अर्थात् सूत्ररूप परमागमका और रहस्य अर्थात् प्रायश्चित्त शास्त्र अध्ययनका अधिकार नहीं है।
सागारधर्मामृतमें भी ये ही सब बातें बतलायी हैं जो वसुनन्दि श्रावकाचारसे ही ली गयी हैं । लाटीसंहितामें वसनन्दि श्रावकाचारको गाथा उद्धत करके उद्दिष्टत्यागी श्रावकके दो भेद बतलाये हैं, एकको क्षल्लक संज्ञा दी है और दूसरेको ऐलक । क्षुल्लकके विषयमें लिखा है, ऐलककी अपेक्षा उसका आचार कोमल होता है । वह शिखा-सूत्र रखता है, एक वस्त्र, एक लंगोटी, वस्त्रकी पीछी और कमण्डलु रखता है। कांसी अथवा लोहेका भिक्षापात्र रखता है। एषणा दोषको टालकर एक बार भिक्षा भोजन करता है । निर्दिष्ट समयपर वह भोजनके लिए घूमता है और पात्रमें भिक्षा लेकर किसी घरमें प्रासुक जल पाकर पात्रकी प्रतीक्षा करता है। यदि कोई पात्र मिल जाता है तो गृहस्थकी तरह अपने भोजनमें से उसे आहारदान देता है और जो कुछ बच जाता है उसे स्वयं खा लेता है। यदि कुछ भी नहीं बचता तो उपवास धारण कर लेता है। यदि उसे गन्ध आदि अष्ट द्रव्य मिल जाते है तो बड़ी प्रसन्नतासे जिनविम्ब वगैरहकी पूजा करता है, आदि ।
१. गा० २९९ २. पृ. १२१, श्लो. १० से। ३.०० श्लो०३.। १. पृ० १२५ । ५. इको.१४७ । ६. गा.३.१मादि।