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उपासकाध्ययन
उस दिन भावपूजाका विधान है । हाँ, जो द्रव्यपूजा करना चाहते हैं, उन्हें स्नान करना चाहिए ।
___ सामायिक और प्रोषधोपवास व्रतप्रतिमामें भी आते हैं और स्वतन्त्र प्रतिमारूप भी हैं । ५. सचित्तस्यागप्रतिमा- जो सचित्त वनस्पतिको नहीं खाता वह सचित्तत्यागप्रतिमाका धारी है । स्वामी
कार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है कि जो वस्तु स्वयं नहीं खाता उसे वह वस्तु दूसरोंको भी नहीं खिलाना चाहिए; क्योंकि खाने और खिलानेमें कोई अन्तर नहीं है, अतः सचित्तत्यागी दूसरोंको भी सचित्तवस्तु नहीं खिला सकता । वसुनेंन्दि श्रावकाचारमें अप्रासुक जलका भी त्याग सचित्तत्यागप्रतिमामें कराया गया है । और सागारधर्मामृतमें अप्रासुक नमक वगैरहको भी त्याज्य बतलाया है। लॉटीसंहितामें लिखा है कि पांचवीं प्रतिमा सचित्तभक्षणका त्याग है। सचित्तको स्पर्श करनेका त्याग नहीं है। अत: अपने हाथसे अप्रासुकको प्रासुक करके खाना चाहिए। रात्रिभक्तवत- पहले बतला आये हैं कि छठी प्रतिमाको लेकर आचार्योंमें मतभेद है। स्वामी समन्तभद्र और स्वामी कार्तिकेयके मतसे जो रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग कर देता है वह रात्रिभक्तव्रती है और दूसरे आचार्योके मतसे जो रात्रिमें ही स्त्री-सेवनका व्रत लेता है अर्थात् दिनमें मैथन नहीं करता वह रात्रिभक्तव्रती है। लाटीसंहितामें लिखा है, छठी प्रतिमासे पहले श्रावक रात्रिमें कदाचित् पानी वगैरह पी लेता है किन्तु छठी प्रतिमासे वह पानी भी नहीं लेता है। न वह रात्रिमें गन्ध लेप तथा माला वगैरहका हो उपयोग करता है तथा रोगको शान्तिके लिए तैल आदिको मालिश भी नहीं कराता, तथा जैसे छठी प्रतिमामें रात्रिभोजनका सर्वथा त्याग होता है वैसे ही दिनमें मैथुनका भी
सर्वथा त्याग आवश्यक है। इस तरह लाटीसंहितामें दोनों मतोंका समन्वय कर दिया गया है। ७. ब्रह्मचर्यप्रतिमा- मन वचन और कायसे स्त्री मात्रको अभिलाषा न करनेको ब्रह्मचर्यप्रतिमा कहते हैं।
आरम्मत्याग- रत्नकरण्डश्रावकाचारके अनुसार नौकरी खेती व्यापार वगैरहके त्यागको आरम्भत्यागप्रतिमा कहते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है, जो न स्वयं आरम्भ करता है, न दूसरेसे कराता और न उसकी अनुमोदना ही करता है वह आरम्भत्यागी है। वसुनन्दि श्रावकाचारमें लिखा है, जो कुछ भी थोड़ा-बहुत गृहसम्बन्धी आरम्भ है उसका जो त्याग कर देता है वह आरम्भत्यागी है। सागार धर्मामतमें लिखा है, जो मन वचन और कायसे कृषि, सेवा, व्यापार आदि आरम्भोंको न स्वयं करता है और न दूसरेसे कराता है वह आरम्भत्यागो है। लाटी संहितामें लिखा है, आठवी प्रतिमासे पहले अपने हाथसे सचित्तका स्पर्श करता था, किन्तु आठवी प्रतिमामें जो सचित्त द्रव्य है उसे अपने हाथसे नहीं छूता। तथा आठवां श्रावक यद्यपि अपने कुटुम्बमें ही रहता है किन्तु मुनिकी तरह जो तैयार भोजन मिल जाता है,उसे ही खा लेता है। प्रासुक जलसे अपने वस्त्र स्वयं धो लेता है या किसी साधर्मीके हाथसे धुलवा लेता है।
इस तरह आरम्भत्यागप्रतिमाके स्वरूपमें भी उक्त ग्रन्थकारोंमें अन्तर है। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कृषि, सेवा और व्यापारके स्वयं करनेका त्याग है। सागारधर्मामतमें स्वयं करने और दूसरेसे करानेका त्याग है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षामें अनुमतिका भी त्याग है। सागारधर्मामृतको टोकामें तो स्पष्ट लिखा है कि गृहस्थके लिए कदाचित् पुत्र वगैरहको अनुमति देना आवश्यक हो सकता है इसलिए मन वचन काय और कृत कारितसे ही आरम्भका त्याग किया जाता है । तथा कृषि सेवा वाणिज्यका त्याग करानेसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि अष्टम प्रतिमाका धारी श्रावक धन कमानेका कोई काम नहीं करता। किन्तु वसुनन्दि श्रावकाचार और लाटोसंहितामें तो गृहसम्बन्धी प्रत्येक आरम्भका त्याग आवश्यक बतलाया
१. गा० ३८०। २. गा० २९५। ३. श्लो० ८, अ. ७ । ४. पृ० १२२, श्लो. १७ ॥५. श्लो० १४४ । ६. गा० ३८५। ७. गा० २९८ । ८. १. अ०७, श्लो० २१ । ९. पृ० १२३, श्लो० ३२ ।