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उपासकाध्ययन
हैं । किन्तु सोमदेवके उपासकाचारमें श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और शक्ति ये सात गुण दाताके बतलाये हैं। चारित्रसारमें भी 'उक्तं च' करके उद्धत किये गये एक श्लोकके द्वारा सोमदेवके द्वारा उक्त सात गुण गिनाये हैं और नवधा भक्ति भी गिनायी है। किन्तु दोनों ही उद्धत श्लोक सोमदेव उपासकाध्ययनसे भिन्न किसी अन्य ग्रन्थके हैं।
जिनसेनाचार्यके महापुराण ( २०१८२) में भी उक्त सात गुणोंको गिनाया है और प्रत्येकका लक्षण भी दिया है, केवल तुष्टिके स्थानमें त्याग दिया है और चारित्रसारमें उद्धृत श्लोक में दया दिया है। वसुनन्दि श्रावकाचारको गाथा २२४ सोमदेव उपासकाध्ययनके आर्यावृत्तका ही प्राकृत रूपान्तर है।
विज्ञान गुणका लक्षण महापुराणमें क्रमज्ञत्व कहा है अर्थात् दाताको दान देनेका क्रम ज्ञात होना चाहिए । किन्तु सोमदेवने विज्ञानका लक्षण बतलाते हुए मुनिको किस प्रकारका भोजन देना चाहिए इसके ज्ञानको विज्ञान कहा है। इसी प्रकरणमें सोमदेवने तीन वाँको दीक्षाके योग्य और चारों वर्गों को आहारदानके योग्य बतलाया है तथा पात्रके पांच भेद किये हैं, समयी, श्रावक, साधु, आचार्य और जैनधर्मका प्रभावक । इस तरह जैनधर्मके पालक, पोषक और प्रभावक श्रावकोंको भी पात्र बतलाकर उनका भी यथायोग्य सम्मान आदि करनेका विधान किया है। पात्रके उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद तो प्रसिद्ध ही हैं। उनके पश्चात् उक्त पांच भेद किये हैं। श्रावकोंके भेद
श्रावकोंके ग्यारह भेद, जो ग्यारह प्रतिमाके नामसे प्रसिद्ध हैं, प्राचीन हैं। आचार्य कुन्दकुन्दसे लेकर उत्तरकालीन सभी श्रावकाचारोंमें तथा अन्य ग्रन्थों में भी इन्हीं भेदोंको गिनाया है। हाँ, सागारधर्मामृतमें श्रावकके पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक ये तीन भेद करके ग्यारह भेदोंको नैष्टिक श्रावकका भेद बतलाया है। जिसको जैनधर्मका पक्ष होता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। पाक्षिकको श्रावकधर्मका प्रारम्भक कहना चाहिए । जो उसमें अभ्यस्त हो जाता है वह नैष्ठिक है, यह मध्यम अवस्था है। और जो आत्मध्यानमें तत्पर होकर समाधिमरणका साधन करता है, वह साधक है । यह परिपूर्ण अवस्था है । १. पाक्षिक श्रावक
पाक्षिक श्रावक जिनेन्द्र भगवान्को आज्ञाको शिरोधार्य करके, हिंसाको छोड़ने के लिए मद्य मांस मधु और पांच उदुम्बर फलोंके सेवन करनेका त्याग करता है। रात्रिभोजन नहीं करता, पानीको छानकर काममें लाता है । पाँचों पापोंको और सात व्यसनोंको छोड़नेका यथाशक्ति अभ्यास करता है। यथाशक्ति जिन भगवान्की पूजा करता है । जिनबिम्ब, जिनमन्दिर, मुनियोंके लिए वसतिका, स्वाध्यायशाला, भोजनशाला, औषधालय वगैरहका निर्माण करता है। गुरुओंकी सेवा करता है । अपने सुयोग्य साधर्मी श्रावकको ही अपनी कन्या देता है। मुनियोंको दान देता है। इस बातका प्रयत्न करता है कि मुनियोंकी परम्परा बराबर चलती रहे और वे गुणवान हों। पहले अपने आश्रितोंको भोजन कराकर फिर अपने आप भोजन करता है। रात्रिमें केवल पानी, औषध और पान इलायची वगैरह मुखशुद्धिकारक पदार्थ ही लेता है। ऐसा कोई आरम्भ नहीं करता जिसमें संकल्पी हिंसा हो। तीर्थयात्रा वगैरह करता है। सागारधर्मामतके दूसरे अध्यायमें पाक्षिकका कथन है। २. नैष्ठिक श्रावक १. दर्शनिक- स्वामी समन्तभद्र के अनुसार दर्शनिक श्रावक संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त होता
है, सम्यग्दष्टि होता है, पंचपरमेष्ठीका भक्त होता है और जैनधर्मका उसे पक्ष होता है। स्वामी
१. सात गुणोंको बतलानेवाले उक्त सब ग्रन्धोंक श्लोकोंके लिए सोमदेव उपासकाध्ययन पृ० २९६ का टिप्पण देखना चाहिए। २. १।२०। ३. रत्नक० श्राइलो० १३७ । ४. स्वा० कार्तिक गा०३२८ ।