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उपासकाभ्ययन
तथा देव शास्त्र गुरुका द्रव्य अथवा भावपूजन करके अपने घर जावे और अतिथिदान देकर भोजन करे। इस प्रकार जो करता है उसकी प्रोषधविधि उत्तम है। केवल जल ग्रहण करना मध्यम प्रोषध है। मध्यम प्रोषधवाला आवश्यक होनेपर सावद्यरहित गृहकार्य कर सकता है, शेष विधि पूर्ववत् है। उस दिन एक बार भोजन करना या कुछ हलका भोजन ले लेना जघन्य प्रोषध है । ( गा० २८१-२९२ ) । आशाधरने वसुनन्दिके अनुसार ही प्रोषधोपवासव्रतका कथन किया है।
तत्त्वार्थसूत्र ( ७।२१ )में उपभोगपरिभोगपरिमाण नामका व्रत है किन्तु रत्नकरण्ड ( श्लो० ३६ )में भोगोपभोगपरिमाण नाम है। सर्वार्थसिद्धिमें उपभोगका जो अर्थ है वही अर्थ रत्नकरण्डमें भोगका है । और परिभोगका जो अर्थ सर्वार्थसिद्धिमें है वही अर्थ रत्नकरण्डमें उपभोगका है। सोमदेव सूरिने न तो तत्त्वार्थसूत्रकी तरह उपभोगपरिभोगपरिमाण नाम अपनाया है और न रत्नकरण्डकी तरह भोगोपभोगपरिमाण नाम अपनाया है। किन्तु भोगपरिभोगपरिमाण नाम दिया है। इनमें से भोग शब्द रत्नकरण्डसे लिया है और परिभोग शब्द तत्त्वार्थस रत्नकरण्डमें भोगोपभोगके नियम और यम रूप त्यागका विधान किया है। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिकमें नियम और यम रूप त्यागका विधान नहीं है, सोमदेवने उसे रत्नकरण्ड. से अपनाया है।
अष्टमूलगुणोंपर प्रकाश डालते हुए हम यह लिख आये हैं कि रत्नकरण्डश्रावकाचारमें भोगोपभोगपरिमाणवतमें भी मद्य, मांस आदिके त्यागका विधान किया है। किन्तु अष्टमलगणोंका निर्देश करनेवाले पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदिमें भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें मद्य, मांस आदिका त्याग नहीं कराया है क्योंकि अष्टमूलगुणोंमें उनका त्याग हो जाता है।
रत्नकरण्ड (इलो० ३८-३९) में लिखा है कि जिन भगवान्को शरणमें आये हुए प्राणियोंको प्रसघातसे बचने के लिए मधु और मांस तथा प्रमादसे बचने के लिए मद्यको छोड़ना चाहिए। तथा लाभ कम और घात अधिक होनेसे मूली, अदरक, श्रृंगवेर, मक्खन, नीमके फूल और केतकीके फूल नहीं खाना चाहिए। सर्वार्थसिद्धि ( ७।२१ ) में भी लगभग रलकरण्डके शब्दोंमें ही मक्खनके सिवाय उक्त अन्य वस्तुओंको त्याज्य बतलाया है।
अकलंकदेवने राजवातिकमें भोगसंख्यानके त्रसधात, प्रमाद, बहुवध, अनिष्ट और अनुपसेव्य भेद करके 'रत्नकरण्डश्रावकाचारके शब्दों में ही उनके त्यागका विधान किया है किन्तु मक्खनको उन्होंने भी नहीं गिनाया।
चारित्रसारका तो आधार ही सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक है। पुरुषार्थसिन्युपाय और सोमदेव उपासकाध्ययनमें भोगोपभोगपरिमाणवतका वर्णन करते हुए केवल अनन्तकाय वनस्पतिके त्याग करनेका विधान किया है। अमितगतिने व्रतका स्वरूपमात्र बतला दिया है।
सागारधर्मामतमें मद्य, मांस और मधुके तुल्य वस्तुओंका त्याग बतलानेके साथ-ही-साथ रत्नकरण्डप्रतिपादित वनस्पतियोंका त्याग तो बतलाया ही है, कुछ और भी बतलाया है जो उनसे पूर्वके उक्त श्रावका. चारोंमें नहीं बतलाया। वे लिखते हैं, बिना उबाले हुए दूध और उसके दही मठामें मिलाया हुआ द्विदल मूंग उड़द वगैरह अन्न नहीं खाना चाहिए। वर्षाऋतु प्रायः करके पुराना और बिना दला हुआ द्विदल नहीं खाना चाहिए और न पत्तेका शाक खाना चाहिए । यथा,
"मामगोरससंपृक्तं द्विदलं प्रायशोऽमवम् । वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकंच नाहरेत् ॥१७॥"."
१. सर्वार्थसिद्धिकारने भी यद्यपि रत्नकरण्डश्रावकाचारके शब्दों में ही भोगोपभोगके त्यागका कथन
किया है फिर भी उसमें थोड़ा-सा अन्तर कर दिया है किन्तु अकलंकदेवने तो उसके श्लोकोंको ही एक तरहसे गरमें रख दिया है। अतः यह निश्चित प्रतीत होता है कि अकलंकदेवके सामने रस्नकरण्ड अवश्य रहा है।