________________
प्रस्तावना शिक्षाबत है यह दिग्बतको. तरह जीवनपर्यन्तके लिए नहीं होता। तत्त्वार्थसूत्र वगैरहमें जो इसे गुणव्रत बतलाया है, वह केवल दिग्वतको संकुचित करने की दृष्टिसे बतलाया है।
दिग्विरतिव्रत, देशविरतिव्रत और अनर्थदण्डविरतिव्रत, इन तीनों गुणवतोंके स्वरूप और अतिचारों में कोई अन्तर नहीं है। सभी ग्रन्थकारोंने प्रायः एक-सा ही कथन किया है। सोमदेव सूरिने गणव्रतोंका कथन बहुत संक्षेपसे किया है किन्तु शिक्षाव्रतोंका कयन बहुत ही विस्तारसे किया है। पहला शिक्षाक्त है सामायिक । सामायिकका कथन रत्नकरण्डमें आठ श्लोकोंके द्वारा विस्तारसे किया है और उनमें सामायिकका समय, स्थान, विधि आदि आवश्यक बातें बतला दी हैं। तदनुसार एकान्त स्थान में, वनमें, मकानमें या चैत्यालयमै बाह्य व्यापारसे मनको हटाकर तथा पर्यकासनसे बैठकर अन्तरात्मामें लीन होना सामायिक है। उपवास और एकभुक्तिके दिन सामायिक करना चाहिए तथा प्रतिदिवस भी करना चाहिए। उससे पाचों व्रतोंको पूर्ति होती है। सामायिकमें न कोई आरम्भ होता है और न परिग्रह, अत: उस समय गृहस्थ भो वस्त्रसे युक्त मुनिकी तरह प्रतीत होता है।
तत्त्वार्थसूत्र (७।२१ ) के टीकाकार पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि में और अकलंकदेवने तत्त्वार्थवातिकमें 'समय'का अर्थ 'एकत्व रूपसे गमन' किया है और उसे हो सामायिक बतलाया है। अर्थात् मन वचन कायको क्रियाओंसे निवृत्त होकर एक आत्मद्रव्यमें लीन होना सामायिक है। किन्तु सोमदेव सूरिने 'समय' का अर्थ 'आप्तसेवाका उपदेश' किया है और उसमें जो क्रिया की जाती है उसे सामायिक कहा है। तदनुसार स्नान, अभिषेक, पूजन, स्तवन, जप, ध्यान आदि सब सामायिकके अंग हैं । भावसंग्रह (गा० ३५५ ) में भी त्रिकाल देव-स्तवनको सामायिक कहा है। आशाधरने ( सागार० ५।२८-३१) प्राचोन परम्पराके साथ सोमदेव सुरिके कथनको भी स्थान दे दिया है। असल में मन, वचन, कायको एकाग्र करके साम्यभावकी वृद्धि के लिए सामायिक की जाती है। पूजनादिका भो वास्तविक उद्देश यही है। इसीसे सोमदेव मूरिने द्रव्यकालको देखकर सामायिकमे ध्यानके साथ पूजनादिको भी गभित कर लिया है।
प्रोषधोपवासवतका कथन करते हुए रत्नकरण्ड ( श्लो० १०६-१०९) में प्रोषधका अर्थ 'एक बार भोजन' किया है और चारों प्रकारके आहारके त्यागको उपवास कहा है। जो उपवास करके एक बार भोजन करता है उसे प्रोषधोपवास कहते हैं। यह अष्टमी और चतुर्दशीके दिन किया जाता है। उपवासके दिन पांचों पापोंका, अलंकार, आरम्भ, गन्ध, पुष्प, स्नान, अंजन और नस्यका त्याग किया जाता है तथा धर्मामृतका पान करते हुए ज्ञान और ध्यानमें तत्पर रहा जाता है।
किन्तु सर्वार्थसिद्धि (७।२१ ) में प्रोषधका अर्थ पर्व किया है और जिसमें पांचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंसे विमुख होकर रहती है उसे उपवास कहा है और उसका अर्थ किया है पर्वके दिन चारों प्रकारके आहारका त्याग करना। लिखा है, "अपने शरीरके संस्कारके कारण स्नान, गन्ध, माला, आभरण आदिको त्याग कर शुभ स्थान में साधुओंके निवासस्थानमें या चैत्यालयमें अथवा अपने उपवासगृहमें धर्मकथाके चिन्तनमें मन लगाकर श्रावकको उपवास करना चाहिए और किसी प्रकारका आरम्भ नहीं करना चाहिए। सोमदेव सूरिने सर्वार्थसिद्धिके अनुसार ही कथन करते हुए प्रोषधका अर्थ पर्व ही किया है।
वसुनन्दिने अपने श्रावकाचारमें प्रोषधोपवासको शिक्षाव्रतोंमें स्थान नहीं दिया। प्रोषधप्रतिमाका वर्णन करते हए प्रोपधापवासकी विधि इस प्रकार बतलायी है. "सप्तमी और तेरसके दिन अतिथिभोजनके अन्त में स्वयं भोजन करके और वहीं मुखशुद्धि करके, मुखको और हाथ-पैरोंकों धोकर वहाँ ही उपवासका नियम लेकर जिनमन्दिर जावे और जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके और गुरुके सामने वन्दनापूर्वक कृतिकर्मको करके गरुको साक्षीपूर्वक उपवासको ग्रहण करके शास्त्रवाचन, धर्मकथा सुनना-सुनाना, बारह भावनाओंका चिन्तन, आदिके द्वारा शेष दिन बितावे । फिर सायंकालीन वन्दना करके रात्रिके समय अपनी शक्तिके अनुसार कायोत्सर्गसे स्थित होकर भूमिका शोधन करके, अपने शरीरके प्रमाण सन्थारा लगाकर अपने घरमें या जिनमन्दिर में सोवे । अथवा पूरी रात कायोत्सर्गपूर्वक बिताकर प्रातःकाल उठकर बन्दनाविधिसे जिनदेवको नमस्कार करके