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प्रस्तावना
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जो लोभको मारकर, सन्तोषरूपी रसायनसे सन्तुष्ट होता हुआ दुष्ट तृष्णाका वध कर देता है और सब पदार्थोंको विनश्वर जानकर धन, धान्य, सुवर्ण, जमीन वगैरहको आवश्यकताको समझकर परिमाण करता है उसके पांचवां अणुव्रत होता है।
इससे स्पष्ट है कि अपनी आवश्यकताको समझकर ही परिमाण करना चाहिए, अनावश्यक द्रव्यका परिमाण करनेवाला तृष्णा और लोभके वशीभूत होनेके कारण परिग्रहपरिमाणवती नहीं कहा जा सकता। लाटीसंहितामें तो इसे और भी सुन्दर रीतिसे स्पष्ट किया है। उसमें लिखा है,
"परिमाणे कृते तस्मादर्वाहमूर्छा प्रवर्तते । अभावान्मूर्छायास्तूवं मुनित्वमिव गीयते ॥५॥ तस्मादात्मोचिताद् द्रव्याद् हासनं तद्वरं स्मृतम् । अनात्मोचितसंकल्पाद् हासनं तन्निरर्थकम् ॥८६॥ अनारमोचितसंकल्पाद हासनं यन्मनीषया।
कुर्युर्यद्वा न कुर्युर्वा तत्सर्व व्योमचित्रवत् ॥४७॥" जितने द्रव्यका परिमाण कर लिया जाता है, ममत्व उसके अन्दर हो रहता है। उससे अधिक ममत्वका अभाव होनेसे वह मनुष्य मनिकी तरह माना जाता है। अतः अपने योग्य द्रव्यको घटाना ही श्रेष्ठ है । अपने लिए अनावश्यक द्रव्यका संकल्प करके उसी में कमी करना तो व्यर्थ है। अपने संकल्पित अनावश्यक द्रव्यको कम करो या मत करो, वह सब आकाशमें चित्र बनानेकी तरह व्यर्थ है।
इससे तो यही प्रमाणित होता है कि अपने पास जो कुछ है उसमें से भी कम करना चाहिए । जो नहीं है उसमें कम करना बेकार है । जैसे जिस मनुष्यके पास एक हजार रुपया है वह यदि परिग्रहपरिमाण धारण करते समय यह सोचकर कि इससे ज्यादा रुपया तो मेरे पास होगा नहीं, एक करोडका परिमाण कर ले तो उसने कम क्या किया। इसी तरह यदि वह एक करोडको घटाकर पचास लाखका परिमाण कर ले तब भी उसने क्या त्यागा। त्याग तो वर्तमानमें जो मौजूद है उसका किया जाना चाहिए न कि उसका जिसकी अभी सम्भावना भी नहीं है।
कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि हजारपति यदि करोड़का परिमाण कर लेता है तो उसे उसका फल अगले जन्ममें मिलेगा। लाटी संहिताकार' कहते हैं कि इसमें कुछ भी सार नहीं है। और वस्तुतः उनका कहना ठीक है, आखिर उसने क्या त्यागा जिसका उसे परलोकमें फल मिले । इसलिए लाटीसंहिताकारके अनुसार व्रती पुरुषांको मनुष्य पर्यायकी स्थिति मात्रके लिए आवश्यक धन रखना चाहिए और बाकी सब छोड़ देना चाहिए। यह उत्सर्ग मार्ग है। तथा गहीत व्रतोंकी रक्षा हो. उनमें कोई हानिन हो इस बातका ध्यान रखकर परिग्रहका परिमाण करना चाहिए, यह अपवाद मार्ग है। अतिचार
परिग्रहपरिमाणवतका अतिचार उपासकाध्ययन सहित सभी श्रावकाचारोंमें तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार 'लोभमें आकर लिये हए परिमाण में अतिक्रम कर लेना ही' बतलाया है। किन्तु रत्नकरण्डश्रावकाचार और
१. "प्रत्यग्रजन्मनोहंदमत्यन्ताभावलक्षणम् ।
तत्यागोऽपि वरं कैश्चिदुच्यते सारवर्जितम ॥८८॥ तत्रोत्सर्गो नृपर्यायस्थितिमात्रकृते धनम् । रक्षणीयं व्रतस्थैस्तैस्त्याज्यं शेषमशेषतः ॥८९॥ अपवादस्तूपात्तानां व्रतानां रक्षणं यथा । स्याद्वा न स्यात्तु तद्वानिः संख्यातव्यस्तथोपधिः ॥५०॥"
-पृ० १०७-१०८ ।