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प्रस्तावना
होता। किन्हीं के मतसे अविवाहित कुलांगनाका सेवन कर लेना भी परदारनिवत्तिव्रतका अतिचार है, क्योकि स्वामीके न होनेसे वह परदार नहीं है, किन्तु लोकमें वह परस्त्री ही मानी जाती है।'
इत्वरिकागमनके इस व्याख्यानके अनुसार स्वदारसन्तोषव्रतीके लिए वेश्यासेवन करना अतिचार है और परदारनिवृत्ति व्रतीके लिए किसीकी रखेली वेश्याके साथ गमन करना अतिचार है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पं० सोमदेवने जो ब्रह्माणुव्रतका स्वरूप बतलाया है वह परदारनिवृत्तिव्रतका ही स्वरूप है। इसीसे उन्होंने उसके अतिचारोंमें 'इत्वरिकागमन के स्थान में स्पष्ट 'परस्त्रीसंगम' को रखा है।
यहाँ 'गमन' के स्थानमें 'संगम' शब्द रखा है, जिसका स्पष्ट अर्थ भोग होता है। 'गमन' शब्दका अर्थ इससे पहलेके किसी ग्रन्थमें हमने नहीं देखा। तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक टीकामें 'गमन' शब्दका अर्थ नहीं किया। हां, श्रतसागरी बत्तिय तथा कार्तिकेयानप्रेक्षाकी शभचन्द्राचार्यप्रणीत सं॰टीकामें किया है । जघन आदिको ताकना, बातचीत करना, हाथ-भौं आदि चलाना इत्यादि रागपूर्ण चेष्टाओंको गमन कहते हैं । पं०आशाधरने भी गमनका अर्थ सेवन किया है। लाटीसंहितामें गमनका अर्थ रागपूर्ण बातचीत, शरीरस्पर्श अथवा रति लिया है।
इस तरह ब्रह्माणुव्रती इत्वरिकाके साथ यदि गमन करता है तो वह अपने व्रतमें अतीचार लगाता है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इस तरह विषयों में प्रवृत्ति करना तभीतक अतिचार है जबतक कभीकभी ही इस तरह प्रवृत्ति की जाती हो। यदि उसमें अति प्रवृत्ति की गयी तो फिर वह अनाचार ही कहा जायेगा, अतिचार नहीं। परिग्रहपरिमाणव्रत
तत्त्वार्थसूत्र ७।१७ में मूर्छाको परिग्रह कहा है। और सर्वार्थसिद्धि में उसको व्याख्या करते हुए बाह्य गौ, भैंस, मणि, मुक्ता वगैरह चेतन-अचेतन और रागादि भावोंके संरक्षण, अर्जन आदिरूप व्यापारको मूर्छा कहा है । उसपर यह शंका-समाधान किया गया है,
शंका-तब तो बाह्य परिग्रह नहीं बनती; क्योंकि आध्यात्मिकका ही ग्रहण किया है। समाधान-आपका कथन ठीक ही है। प्रधान होनेसे अभ्यन्तरका ही ग्रहण किया है क्योंकि बाह्यमें परिग्रहके अभावमें भी 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प करनेवाला परिग्रही होता है । शंका-तो क्या बाह्य परिग्रह होता ही नहीं ? । समाधान-मूर्छाका कारण होनेसे बाह्य भी परिग्रह होता है । शंका-यदि 'यह मेरा है' इस प्रकारका संकल्प परिग्रह है तो सम्यग्ज्ञानादिको भी परिग्रह कहा जायेगा; क्योंकि जैसे रागादि भावों में 'यह मेरे है' इस प्रकारका संकल्प करना परिग्रह है वैसे ही सम्यग्ज्ञानादिमें भी 'यह मेरे है' ऐसा संकल्प किया जाता है।
१. "तत्र इत्वरिकागमनम्-अस्वामिका असती गणिकात्वेन पुंश्चलित्वेन वा पुरुषानेति गच्छतीत्येवं
शीला इत्वरी। तथा प्रतिपुरुषमंतीत्येवंशीलेति न्युत्पत्त्या वेश्यापीत्वरी। ततः कुत्सायां के इत्वरिका। तस्यां गमनमासेवनम् । इयं चात्र भावना-माटिप्रदानानियतकालस्वीकारेण स्वकलीकृत्य वेश्यां वेत्वरिका सेवमानस्य स्वबुद्धिकल्पनया स्वदारस्वेन व्रतसापेक्षचित्तस्थादल्पकालपरिग्रहाच न भङ्गो वस्तुतोऽस्वदारत्वाच्च भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपत्वादित्वरिकाया वेश्यात्वेनास्यास्त्वनाथतयैव परदारत्वात्। किं चास्य माव्यादिना परेण किंचित्कालं परिगृहीतां वेश्यां गच्छतो भङ्गः कथंचित्परदारत्वात्तस्याः । लोकं तु परदारत्वारूढेन भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरूपोऽतिचारः। अन्ये स्वपरिगृहीतकुलाङ्गनामप्यन्यदारवर्जिनोऽतिचारमाहुः । तत्कल्पनया परस्य भतुरमावेनापरदारत्वादभङ्गो लोके च परदारतया रूढेभङ्ग इति भङ्गामङ्गरूपत्वात्तस्य ।"
-सागा० टी०, अ.१, श्लोक ५। २. "जघनवदनस्तनादिनिरीक्षणं संभाषणं पाणिभ्रचक्षुरन्तादिसंज्ञाविघातमित्यवमादिकं निखिलं
रागित्वेन दुश्चेष्टितं गमनमिन्युच्यते ।"