________________
प्रस्तावना
८१
देव, शास्त्र और गुरुको नमस्कार करके कुटुम्बियोंको साक्षीपूर्वक जिसका पाणिग्रहण किया जाता है वह तो पत्नी है और जिसका इस प्रकार पाणिग्रहण नहीं किया जाता वह चेटिका है। पाणिग्रहीता पत्नी दो प्रकारको होती है, एक स्वजातिकी, दूसरी अन्य जातिको। स्वजातिको पाणिग्रहीता पत्नी ही धर्मपत्नी है और दूसरी भोगपत्नी है। इन दोनोंसे अतिरिक्त जो सामान्य स्त्री होती है वह चेटिका कही जाती है। चेटिका और भोगपत्नी दोनों केवल भोगके लिए होती हैं अतः इन दोनोंमें वास्तवमें कोई भेद नहीं है। धर्मके ज्ञाताओंको भोगपत्नी नहीं रखनी चाहिए। जब भोगपत्नी ही निषिद्ध है तब परस्त्रीका तो कहना ही क्या है। फिर भी परस्त्रीका स्वरूप बतलाते हैं । परस्त्री तीन प्रकारको होती है-गृहीता, अगृहीता और वेश्या । गृहीता भी दो प्रकारकी होती हैं-एक वह जिसका पति जीवित है और दूसरी वह जिसका पति तो मर चुका है किन्तु पिता वगैरह जीवित हैं। जो चेटिका बतलायी है उसका पति वही है जिसके पास वह रहती है अत: वह भी गृहीता ही है। विधवा स्त्रीके जब कुटुम्बी भी मर जाते हैं तो स्वच्छन्दचारिणी होनेपर वही अगहोता कहलाती है। इसके साथ सम्भोग करनेपर यदि वैरी लोग राजाको खबर कर दें तो निश्चय दण्ड मिलता है।
___आगे लाटीसंहिताकार लिखते हैं, कुछ जैन ऐसा कहते हैं कि उक्त स्त्री गृहीता ही समझी जाती है; क्योंकि ऐसा नियम है कि जिसका स्वामी नहीं है उसका स्वामी राजा होता है। अतः उनके मतसे वह स्त्री अगहोता है, पिता वगैरहके होते हुए भी जिसके साथ सम्भोग करने से राजा आदिका भय नहीं रहता। उनके मतसे स्वच्छन्द नारीके दो ही भेद है - एक गहोता और दूसरी अग्रहीता। वेश्याका अन्तर्भाव भी इन्हीं में हो जाता है । ये सब जानकर परस्त्रीको ओर मन नहीं लगाना चाहिए।
___ ऊपरके विवेचनसे यह स्पष्ट है कि सोमदेवके सिवा सभी श्रावकाचारोंमें ब्रह्मचर्याणुव्रतीके लिए स्वस्त्रीके सिवा शेष सभी परस्त्रियोंका त्याग आवश्यक बतलाया है। किन्तु सोमदेवने 'वित्तस्त्री'को भी उक्त व्रतकी मर्यादाके अन्दर ले लिया है। ऐसा उन्होंने क्यों किया इसके सम्बन्ध में स्वयं उन्होंने तो कुछ लिखा नहीं, हां उनके उत्तरकालीन पं० आशाधरने अवश्य कुछ प्रकाश डाला है। सागारधर्मामृतके चतुर्थ अध्यायमें स्वदारसन्तोषका व्याख्यान करते हुए वे लिखते हैं-जो मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनासे पापके भयसे परनारी और वेश्याको न स्वयं भोगता है और न दूसरोंको ऐसा कराता है वह स्वदारसन्तोषी है। यह ब्रह्माणुव्रत निरतिचार अष्टमूलगुणोंके धारक विशुद्ध सम्यग्दृष्टि श्रावकके लिए बतलाया गया है। जो गृहस्थ अपनी पत्नीकी तरह साधारण स्त्रियोंका भो त्याग करने में अशक्त है और केवल परस्त्रियोंका ही त्याग करता है, वह भी ब्रह्माणुव्रती माना जाता है। क्योंकि ब्रह्माणुव्रतके दो भेद है-स्वदारसन्तोष और परदारनिवृत्ति । यह बात स्वदारसन्तोपव्रतके उक्त लक्षण में परनारी और वेश्याका निषेध करनेसे निकलती है। इनमें से स्वदारसन्तोषव्रत तो देशसंयममें अभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक पालता है और दूसरा व्रत देशसंयमके अभ्यासके लिए तत्पर पाक्षिक श्रावक पालता है, जैसा कि सोमदेव पण्डितने लिखा है।
पं. आशाधर आगे और लिखते हैं, वसुनन्दि श्रावकाचारमें - दर्शन प्रतिमाका लक्षण यह बतलाया है - पांच.उदृम्बरोंके साथ-साथ सातों व्यसनोंको जो होड़ देता है उस सम्यग्दष्टिको दर्शन श्रावक कहते हैं। अतः वसुनन्दि आचार्य के मतसे व्रत प्रतिमाधारीके ब्रह्माण व्रतका स्वरूप यह है, जो पर्वोमें स्त्रीसेवन और अनंगक्रीडाको सदाके लिए छोड़ देता है उसे स्थूल ब्रह्माणुव्रती कहते हैं । स्वामी समन्तभद्रके मतसे जो दर्शनिक श्रावक है उसके लिए ऊपर कहा हुआ ही ब्रह्माणुव्रत है जो अतिचार छुड़ानेके लिए यहां कहा गया है।
___ इससे यह स्पष्ट होता है कि पं० सोमदेवने जो ब्रह्माणुव्रतका लक्षण बतलाया है वह देशचारित्रके अभ्यासो श्रावकके लिए है और पं० आशाधर वगरहने जो ब्रह्माणुव्रतका लक्षण बतलाया है वह देशचारित्रमें जो अभ्यस्त हो चुका है उस श्रावकके लिए है। इसी तरह वसुनन्दि श्रावकाचारमें जो ब्रह्माणुव्रतका स्वरूप बतलाया है, है तो वह भी अभ्यस्त देश-संयमी नैष्ठिक श्रावकके लिए ही किन्तु उसमें अन्तर इसलिए पड़ा
१. सागार. अ. ४ श्लो० ५२ की टीकामें।