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प्रस्तावना
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सत्याणुव्रतके मतोचार भी पांच बतलाये है-झूठो सलाह देना, स्त्री पुरुषकी एकान्तमें की गयी किसी चेष्टाको देखकर दूसरोंसे कह देना, जाली हस्ताक्षर बनाना, कोई अपनी रखी हुई धरोहरको भूलकर कम मांगे तो उससे यह न कहना कि तुम्हारी धरोहर अधिक थी और उठाकर वह जितनी कहे उतनी दे देना। मुखकी आकृति वगैरहसे दूसरेके मनकी बात जानकर उसे प्रकट कर देना। रत्नकरण्ड (श्लो० ५६ ) में मिथ्योपदेश और साकार मन्त्रभेदके स्थान में परिवाद और पैशन्यको रखा है और सोमदेवके उपासकाध्ययन (श्लो० ३८१) में मिथ्योपदेश, रहोऽभ्याख्यान और न्यासापहारके स्थानमें परीवाद पैशन्य और झूठी गवाहीको रखा है। अचौर्याणुव्रत
कहीं रखे हुए या गिरे हुए या भूले हुए परद्रव्यको न स्वयं लेना और न उठाकर दूसरेको देना अचोर्याणुव्रत है ( रत्न. श्रा० श्लो० ५७ )। तत्त्वार्थसूत्र ( ७।१५ ) में बिना दी हुई वस्तुके लेनेको चोरी कहा है । इसको व्याख्यामें सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपादने ( विक्रमकी छठी शताब्दी ) कुछ शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया है। .
शंका-तब तो जीवके द्वारा कर्म नोकर्मका ग्रहण भो चोरो ठहरता है ? क्योंकि वह भी बिना दिया हुआ है ? समाधान-जिस वस्तुमें देन-लेनका व्यवहार सम्भव है उसीको बिना दिये लेनेसे चोरीका व्यवहार होता है। शंका-फिर भी साध ग्राम नगर आदिमें भ्रमण करते समय मार्गमें बने हए द्वारोंमें प्रवेश करता है अतः यह भी तो बिना दो हुई वस्तुका ग्रहण है। समाधान-नहीं, मार्ग तो सार्वजनिक है। किन्तु बन्द द्वारोंको खोलकर साधु प्रवेश नहीं करता है, क्योंकि वह सार्वजनिक नहीं है। अथवा प्रमादके योगसे जो बिना दी हुई वस्तुका ग्रहण किया जाता है उसे चोरी कहते हैं। मार्गके द्वारमें प्रवेश करते समय साधुके प्रमादका योग नहीं होता। सारांश यह है कि जहां संक्लेश परिणामसे प्रवृत्ति हो वह चोरी है, चाहे बाह्य वस्तु हाथ लगे या न लगे। .
अमृतचन्द्र सूरिने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें चोरीका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि धन मनुष्योंका बाह्य प्राण है। जो जिसका धन हरता है वह उसका प्राण हरता है। जो जलाशयोंसे पानी आदि भी लेनेका त्याग करने में असमर्थ हैं उन्हें भी अन्य सब बिना दी हई वस्तु के ग्रहणका त्याग करना चाहिए (श्लो०१०३-१०६)। सोमदेवने उक्त परिभाषाओंको दृष्टिमें रखकर लिखा है कि सार्वजनिक जल, तृण आदिके सिवाय अन्य सब बिना दी हुई परायी वस्तुओंका ग्रहण करना चोरी है। तथा यदि कोई अपना कुटुम्बी मर जाये तो उसका धन बिना दिये हुए भी लिया जा सकता है। किन्तु जोवित होनेपर उसके आदेशसे ही लिया जा सकता है अन्यथा व्रतकी हानि होती है । जो धन पथिको वगेरहमें गड़ा हुआ मिला हो, उसे भी नहीं लेना चाहिए। क्योंकि जिस धनका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा होता है । अतः मकानमें, जलमें, जंगलमें या पर्वतमें गड़े हुए पराये धनको नहीं लेना चाहिए। यदि कभी अपनी वस्तु में भी यह संशय हो जाये कि यह हमारी है या नहीं ? तो जबतक सन्देह दूर न हो उसे नहीं लेना चाहिए। (श्लो० ३६४-३७२ ) अमितगति श्रावकाचार तथा सागारधर्मामृत ( अ० ४ ) में भी यही सब बातें बतलायी हैं । लाटीसंहितामें भी कोई नयी बात नहीं है।
अतीचार भी सब श्रावकाचारोंमें प्रायः समान ही हैं । दूसरोंको चोरीको और प्रेरित करना, चोरीका माल खरीदना, खरीदनेके बाट तराजू अधिक और बेचनेके कम रखना, बहुमूल्य वस्तुमें कम मूल्यकी उसके समान वस्तु मिलाकर बेचना ये चार. अतीचार हैं। सोमदेवकृत उपासकाध्ययनमें इनमें से अन्तिम अतीचारको न गिनाकर बाट तराजु अधिक और कमती रखनेको अलग-अलग गिनाया है। पांचवें अतीचारको अन्य