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उपासकाभ्ययन
जो लोग अपनो सांसारिक जीवन-यात्रामें सहायक असत्य वचनको छोड़नेमें असमर्थ हैं उन्हें भी अन्य असत्य वचनोंको सदाके लिए छोड़ देना चाहिए।
सोमदेव सूरिने अपने उपासकाध्ययनमें अमेत्यका वर्णन करते हए वचनके चार भेद दूसरे प्रकारसे किये हैं । वे भेद है-असत्य सत्य, सत्य असत्य, सत्य सत्य और असत्य असत्य । इसका अभिप्राय यह है कि कोई वचन असत्य होते हुए भी सत्य होता है जैसे, भात पकाता है, कपड़ा बुनता है। कोई वचन सत्य होते हुए भी असत्य है। जैसे, किसीने कहा कि तुम्हें मैं पन्द्रह दिन बाद तुम्हारी चीज लौटा दूंगा, किन्तु प्रतिज्ञात समयपर न लोटाकर एक माह बाद या एक वर्ष बाद बाद लौटाता है । जो वस्तु जहाँपर जिस रूपमें देखी या सुनी थी उसको वैसा ही कहना सत्य सत्य है । और सर्वथा झूठ वचन असत्य असत्य है। इसमें से पहलेके तीन वचन ही लोकयात्रामें सहायक हैं । अतः चौथे प्रकारके झूठको कभी नहीं बोलना चाहिए।
___ आगे और भी लिखा है कि न अपनी प्रशंसा करनी चाहिए और न दूसरोंकी निन्दा करनी चाहिए। न दूसरेके गुणोंको छिपाना चाहिए और न अपनेमें जो गुण नहीं हों उनको प्रकट करना चाहिए। जो दूसरोंका प्रिय कार्य करता है वह आना हो प्रिय करता है। फिर भी न जाने यह संसार दूसरोंका अप्रिय करने में ही क्यों तत्पर रहता है। जो सत्य वचन बोलता है उसे सत्यके माहात्म्यसे वचनसिद्धि हो जाती है और जहाँ जहां वह जाता है उसके ववनका आदर होता है तथा जो झूठ बोलता है उसको जीभ काट डाली जाती है और वह परलोकमें भी कष्ट उठाता है । (श्लोक ३७६-३९१)आदि ।
__ अमितगति उपासकाचारमे पुरुषार्थसिद्धय पायके अनुसार ही असत्यके चार भेद किये हैं। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ उन भेदोंका नामकरण कर दिया है-असदुद्धावन, सदपलपन, विपरीत और निन्द्य । फिर निन्द्यके तीन भेद कर दिये हैं-सावद्य, अप्रिय और गह्य। तथा लिखा है कि कामके वशमें होकर या क्रोधके वश होकर या हंसोमें या प्रमादसे अथवा घमण्ड में आकर या लोभसे या मोहसे या द्वेषवश असत्य वचन नहीं बोलना चाहिए।
सागारधर्मामृतमें सत्याणुयतका वर्णन करते हुए वचनके जो भेद बतलाये हैं वे सोमदेव सूरिके उपासकाध्ययनके अनुसार हैं। किन्तु उसमें जो सत्याणुव्रतका स्वरूप बतलाते हुए कन्या अलीक, गो अलीक आदिका निधेष किया है वह किसी भी दिगम्बर जैन ग्रन्थमें नहीं मिलता और इसलिए वह हेमचन्द्राचार्यके योगशास्त्रसे लिया गया प्रतीत होता है। सागारधर्मामृतमें लिखा है,
"कन्यागोक्ष्मालीककूटसाक्ष्यन्यासापळापवत् ।
स्यात् सत्याणुव्रती सत्यमपि स्वान्यापदं त्यजन् ॥३९॥-०४।" और योगशास्त्रमें लिखा है,
"कन्यागोभूम्यलीकानि न्यासापहरणं तथा । कूटसाक्ष्यं च पञ्चेति स्थूलासत्यान्यकीर्तनम् ॥५४॥"
__कन्या आदि द्विपदोंके सम्बन्धमें झूठ बोलना कन्यालीक है। गौ आदि चौपायोंके सम्बन्ध में झुठ बोलना गो-अलोक है । जैसे थोड़ा दूध देने वाली गायको बहुत दूधवाली या बहुत दूध देनेवालो गायको थोड़ा दूध देनेवाली बतलाना । पृथ्वी आदि अचेतन वस्तुओंके विषय में झूठ बोलना क्षमा अलोक है जैसे परायी जमीनको अपनी या अपनी जमीनको परायी बतलाना । इस तरहके झूठ नहीं बोलना चाहिए । इस तरह विविध श्रावकाचारोंमें सत्याणुव्रतका स्वरूप बतलाया है।
१. पृ० १७५-१७६ । २. पृ० १५५.१५८ ।