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उपासकाध्ययन
है और लिखा है कि रात्रिभोजन करनेसे मांसभक्षणका दोष लगता है। इसपर यह शंका को गयो है कि आपको यहाँ रात्रिभोजनका निषेध नहीं करना चाहिए वह तो आपने छठी प्रतिमामें बतलाया है। इसका यह समाधान किया गया कि पूरी तरहसे रात्रिभोजनका निषेध छठी प्रतिमामें होता है। यहां तो उसका आंशिक त्याग किया जाता है। अर्थात् यहाँ रात्रिभोजननिषेध सातिचार है और छठी प्रतिमा निरतिचार है। यहाँ तो अन्न वगैरह स्थूल खाद्यका निषेध है जलपान वगैरहका निषेध नहीं है; किन्तु छठो प्रतिमा तो प्राणान्त हो जानेपर भी जलपानकी तो बात ही क्या औषध भी नहीं ली जा सकती। शायद कोई कहे कि पहली प्रतिमावाला श्रावक तो केवल जैनधर्मका पक्ष करता है वैसे तो वह अव्रती है. अतः उसे रात्रिमै अन्न खाना चाहिए। इसका समाधान यह किया गया कि रात्रिभोजन न करना जैनोंका कुलाचार है उसके बिना कोई नामसे भी श्रावक नहीं हो सकता। रात्रिभोजन न करना तो सबसे जघन्य व्रत है, उसके नीचे तो फिर कोई क्रिया ही नहीं है।
शायद कहा जाये कि पाक्षिक श्रावक तो अक्ती होता है. उसके तो केवल जैनधर्मका पक्ष मात्र रहता है, व्रत तो वह पालता ही नहीं है, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसी अवस्थामें उसे पाक्षिक भी नहीं कह सकते, क्योंकि वह सर्वज्ञ भगवानकी आज्ञाका लोपक है। भगवानकी आज्ञा है कि जो क्रियावान् हो वही श्रावक है। अतः निकृष्टसे निकृष्ट श्रावक भी कुलाचारको नहीं छोड़ता।
इस प्रकार लाटीसंहिताके कर्ता निकृष्टसे निकृष्ट श्रावकको भी व्रतके रूपमें न सही तो कुलाचारके रूपमें ही रात्रिभोजन न करना आवश्यक बतलाकर रात्रिभोजनकी बराइयां बतलाते हैं।
__ वे लिखते हैं, "यह सब जानते हैं कि रात्रिमें दोपकके निकट पतिगे आते ही हैं और वे हवाके वेगसे मर जाते हैं। अतः उनके कलेवर जिस भोजनमें पड़ जाते हैं वह भोजन निरामिष कैसे रहा? तथा रात्रिमें भोजन करने में युक्त-अयुक्तका भी विचार नहीं रहता। अरे जहाँ मक्खी दिखायी नहीं देती वहाँ मच्छरोंका तो कहना ही क्या ? अतः संयमकी वृद्धिके लिए रात्रिमें चारों प्रकारके आहारका त्याग करना चाहिए। यदि उतनी सामर्थ्य न हो तो अन्न वगैरहका त्याग करना चाहिए।
सातवीं शतीसे लेकर सत्रहवीं शती तक एक हजार वर्षके समयमें रात्रिभोजनके विषयमें जो विचारधारा बहती आयी है ऊपर उसका विवरण दिया गया है और उस सबका सार सोमदेव सूरिके शब्दोंमें यह निकलता है,
"अहिंसावतरक्षार्थ मूलबतविशुद्धये ।
निशायां वर्जयेद् भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ॥३२५॥" अर्थात् अहिंसावतको रक्षाके लिए और मूलव्रतोंको विशुद्ध रखनेके लिए इस लोक और परलोकमें दुःखदायी रात्रिभोजनको छोड़ देना चाहिए ॥३२५॥
___ उत्सर्ग मार्ग यही है। इसमें अपवाद तो केवल पानी औषध और मुखको सुवासित करनेवाले पान इलायची आदिके भक्षण कर सकनेका था। किन्तु उत्तरकालमें हिन्दू और मुसलमानोंके संसर्गस रात्रिभोजनका प्रचार जैनोंमें चला तो फिर अन्नाहारके त्यागपर ही जोर दिया जाने लगा। रात्रिमें फलाहार करना
और फलाहारके नामपर सिंघाडेकी गिरी, तिल, रजगिरा आदिके व्यंजन बनाकर सेवन करनेकी रीति एकदम हिन्दुओंके प्रभावको व्यक्त करती है; क्योंकि उनमें व्रतके दिन अन्नाहार न करके ऐसी ही वस्तुओंका आहार किया जाता है। धीरे-धीरे जब जैनधर्ममें केवल वैश्य वर्ग ही रह गया और व्रताचरण मन्द हो चला तो रात्रिभोजनत्यागको कुलाचार मानकर उसपर जोर दिया जाने लगा, जैसा लाटीसंहितासे प्रकट है। किन्तु वास्तविक बात तो 'सावयधम्मदोहा' के शब्दों में यही है,
"तम्बोलोसह जलु मुइवि जे अत्यमियई सरि । भोग्गासणुं फलु अहिलसिउ तें किउ दसणु दूरि ॥३७॥"