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प्रस्तावना
सर्वार्थसिद्धिमें व्रतका वर्णन करते हए सातवें अध्यायके प्रथम सूत्रके व्याख्यानमें एक शंका की गयी है कि रात्रिभोजनविरमण नामका एक षष्ठ अणुव्रत भी है उसे भी यहां गिनाना चाहिए। इसका यह समाधान किया गया कि रात्रिभोजनविरमण कोई अलग अणुव्रत नहीं है, किन्तु उसका अन्तर्भाव अहिंसाव्रतको 'आलोकित पानभोजन' भावनामें हो जाता है। अकलंकदेवने राजवातिकमें भी यही शंका उठायी है और समाधान भी यही किया है। इसका यह मतलब नहीं है कि दिगम्बर परम्परामें रात्रिभोजनविरति नामका भी षष्ठ अणव्रत था। यह शंका तो श्वेताम्बर मान्यताको लेकर की गयी प्रतीत होती है, क्योंकि श्वेताम्बरोंमें छह मूलगुण माने गये है-पांच अहिंसा आदि और छठा रात्रिभोजनत्याग। उसीको दृष्टि में रखकर यह शंका की गयी प्रतीत होती है। किन्तु चारित्रसारमें जो मुख्य रीतिसे सर्वार्थसिद्धिको सामने रखकर लिखा गया है, रात्रिभोजनविरतिको छठा अणुव्रत स्वीकार किया है। और रत्नकरण्डमें छठी प्रतिमाका जो स्वरूप बतलाया है वही उसका स्वरूप बतलाया है। चारित्रसारकी इस मान्यताका समर्थन पूर्वकालीन या उत्तरकालीन किसी भी ग्रन्थसे नहीं होता। रात्रिभोजनविरतिको छठी प्रतिमा मानना अवश्य ही ध्यान देने योग्य है । किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि छठी प्रतिमासे पहलेके श्रावकोंके लिए रात्रिभोजन विधेय था, क्योंकि प्रायः सभी पूर्वकालीन और उत्तरकालीन ग्रन्थोंमें रात्रिभोजनका निषेध जोरसे किया गया है। प्रमाण रूपमें सबसे पहले वि० सं० ७३४ के रचे हुए पद्मचरितको ही लें, उसके चौदहवें पर्वमें लगभग ६० श्लोकोंके द्वारा रात्रिभोजनकी बुराइयां और उसके त्यागको भलाइयां बतलायी गयी हैं। उसमें लिखा है, "जिन्होंने रात्रिभोजन रूपी अधर्मको धर्म माना है वे कठोर पापी हैं। सूर्यके छिप जानेपर पापी जीव परम लालसासे भोजन करता है, किन्तु दुर्गतिको नहीं देखता। रात्रिको खानेवाला पापी अन्धकारमें मक्खी कीड़े वगैरह खा जाता है। जो रात्रिको भोजन करता है वह डाकिनी भूत पिशाच आदि कुत्सित प्राणियोंके साथ तथा कुत्ता, बिल्लो वगैरह मांसाहारी प्राणियोंके साथ भोजन करता है। अधिक क्या, जिसने रात्रिमें खाया उसने सब अपवित्र वस्तुओंको खाया । अतः रात्रिमें खानेवाले मनुष्य नहीं, पशु हैं ।" इत्यादि ।
___ अकलंकदेवने राजवातिकमें रात्रिभोजनका जो निषेध किया है वह अधिक जोरदार प्रतीत नहीं होता, दूसरे वह मुनियोंकी दृष्टिसे किया गया जान पड़ता है। उत्तरकालीन श्रावकाचारोंमें पप्रचरितके स्वरमें ही रात्रिभोजनका निषेध मिलता है। उदाहरणके लिए अमितगति श्रावकाचारका विवरण देखने योग्य है जो लगभग ३० श्लोकोंके द्वारा किया गया है। उसमें लिखा है, "जिसमें राक्षस पिशाच आदि घूमते हैं, जीवसमूह दिखायी नहीं देता, छोड़ी गयी वस्तु भी खाने में आ जाती है, घना अन्धकार रहता है, मुनिदानका अवसर नहीं मिलता, न देवपूजन ही होता है, खाने के साथ जीवोंको भी भक्षण करना पड़ता है, कोई भी शुभ काम जिस समय नहीं किया जा सकता उस दोषपूर्ण रातके समयमें धर्मात्मा और कर्मठ पुरुष भोजन नहीं करते ।" आदि।
सोमदेव सूरिने तो केवल एक श्लोकके द्वारा अहिंसाव्रतकी रक्षाके लिए और मूलव्रतकी विशुद्धिके लिए रात्रिभोजनका निषेध किया है। सागारधर्मामतमें भी प्रायः उक्त युक्तियोंको देकर रात्रिभोजनका निषेध किया गया है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि साधारण श्रावकके लिए कभी भी रात्रिभोजन विधेय नहीं रहा । पाक्षिक श्रावकके लिए मुखवास तथा औषध आदिकी छूट देखी जाती है। सागारधर्मामृतमें लिखा है कि पाक्षिक श्रावक रात्रिमें पान, इलायची, पानी, औषध वगैरह ले सकता है ।
ऊपर लिखा है कि लाटोसंहितामें छठी प्रतिमाका स्वरूप बतलाते हुए रात्रिभोजनत्यागको भी उसका स्वरूप बतलाया है। फिर भी पहली प्रतिमाका स्वरूप बतलाते हुए उसमें रात्रिभोजनका निषेध किया
१. "मूलगुण-पंचमहम्वयाणि राईमोयण छठाई।" महा० ३ ० । २. लाटीसंहिता, पृ०१९।