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उपासकाध्ययन
बन्ध होता है अतः जो कृषि आदि क्रिया करता है उसे हिंसासे अवकाश कैसे मिल सकता है। आगे लिखा है कि यदि कोई किसान खेतीको घटा दे तो अच्छा है किन्तु उसके कोई भी प्रतिमा नहीं हो सकती। आगे खेती करानेका भी निषेध किया है और लिखा है कि व्यापारके लिए विदेशोंको गाड़ी वगैरह भी नहीं भेजना चाहिए।' ८. श्रावकको त्रस जीवोंसे रहित वस्तुका ही क्रय-विक्रय करना चाहिए। ९. अकाल के समय व्यापारके लिए धान्यसंग्रह नहीं करना चाहिए तथा घी तेल और गुड़का संग्रह कभी नहीं करना चाहिए। १०. लाख, इंट, खार, शस्त्र और चमड़े वगैरहका तथा पशुओंका व्यापार नहीं करना चाहिए। ११. तोता, कुत्ता, बिलाव, बन्दर, सिंह और मृग वगैरहको नहीं पालना चाहिए । १२. अन्य भी जो ऐसे काम हैं-जिनमें त्रस जीवोंका वध होता हो वे सब नहीं करना चाहिए। १३. व्रती नैष्ठिकको संग्रामकी चिन्ता नहीं करना चाहिए। हां, अव्रती पाक्षिक कर भी सकता है।
अन्य भी बहुत-से प्रतिबन्ध अणुव्रती श्रावकके लिए इस ग्रन्थमें बतलाये गये हैं।
इस विवरणसे प्रतीत होता है कि अहिंसाका स्रोत खान-पानको शुद्धिको ओर अधिक प्रवाहित हुआ है और उत्तरकालमें भारतमें मुसलमानोंका आवागमन बढ़ जाने के कारण उसमें और भी अधिक कड़ाई बरती गयी है। यद्यपि राग और द्वेष तथा उससे उत्पन्न होनेवाले काम क्रोध आदि सभी भाव हिंसाके ही रूपान्तर हैं तथापि उनकी ओर उतना लक्ष्य नहीं दिया गया जितना खान-पानकी शुद्धिकी ओर दिया गया है। उसीके फलस्वरूप शुद्ध खान-पान करनेवाले भी मनुष्योंमें मानसिक अशुद्धिकी मन्दता नहीं पायी जाती और व्यवहारमें अहिंसाके दर्शन कम ही होते हैं। रात्रिभोजन
श्रावकाचारका वर्णन करते हुए प्रायः सभी शास्त्रकारोंने रात्रिभोजनका निषेध किया है। थोड़ा अन्तर देखा जाता है; वह यह कि श्रावकके जो ग्यारह भेद बतलाये हैं उसमें छठे भेदके स्वरूपको लेकर शास्त्रकारोंमें मतभेद है। आचार्य कुन्दै कुन्दने तो ग्यारह भेदोंके केवल नाम गिनाये हैं जिसमें छठे भेदका नाम 'रायभत्त' रखा है । टीकाकार श्रुतसागर सूरिने दोनों मान्यताओंको लेकर उसका अर्थ रात्रिभोजनविरत और दिवा ब्रह्मचर्य किया है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें स्वामो समन्तभद्रने छठी प्रतिमाका नाम 'रात्रिभुक्तिविरत' रखा है और लिखा है कि जो प्राणियोंपर दया करके रात्रिमें चारों प्रकारके भोजनका त्याग करता है उसे रात्रिभुक्तिविरत करते हैं । स्वामी कार्तिकेया नप्रेक्षामें भी छठी प्रतिमाका यही स्वरूप दिया है । किन्तु चारित्रसार, सोमदेवकृत उपासकाचार, वसुनन्दि श्रावकाचार, अमितगति श्रावकाचार, सं० भावसंग्रह और 'सागारधर्मामृतमें दूसरा लक्षण दिया है अर्थात् जो केवल रात्रिमें ही स्त्रीसे भोग करता है और दिनमें ब्रह्मचर्य पालता है उसे रात्रिभक्तवत या दिवामैथुनविरत कहते हैं । लाटी संहितामें दोनोंको ही सम्मिलित कर लिया है, अर्थात् रात्रिभोजन और दिवामैथुनका जो त्याग करता है वह षष्ठम श्रावक कहा जाता है ।
छठी प्रतिमाम रात्रिभोजनका त्याग करानेवाले रत्नकरण्डश्रावकाचार और स्वामी कार्तिकेयानप्रेक्षामें छठी प्रतिमासे पहले रात्रिभोजन न करनेकी कोई चर्चा नहीं की गयी है, जब कि अन्य श्रावकाचारोंमें मद्यादिककी तरह रात्रिभोजनका त्याग भी आवश्यक बतलाया है।
१. "माह कृषीवलः कश्चिद् द्विशतं न च करोम्यहम् ।
शतमात्रं करिष्यामि प्रतिमाऽस्य न कापि सा ॥१६३॥" २. "करं कृष्यादिकं कर्म सर्वतोऽपि न कारयेत् ।
वाणिज्यायं विदेशेषु शकटादिं न प्रेषयेत् ॥१७७॥" ३. चारित्र प्रा०गा०२१ । ४.श्लो० १४२। ५. गा०३८२ । ६. पृ. १९१७. श्लो० ८५३ । ८.गा.
२९६ । ५. अ. ., श्लो०७२।१०. श्लो० ५३८।११.भ.., श्लो. १२। १२. पृ० १२३ ।