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उपासकाध्ययन
४. उत्तरकालमें इस लक्षणका खुलासा इस रूपमें हुआ, जो गृही श्रावक है और कारित रूप संकल्पसे ही त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करता है; वह श्रावक नौ संकल्पसे त्रस जीवोंकी हिंसाका त्याग करता है । यह ग्रन्थ में पाया जाता है ।
वह मन वचन और कायके कृत किन्तु जो घर-बार छोड़ चुका है खुलासा सर्वप्रथम अमितगति के
५. अणुव्रती श्रावक कृषि आदि कर सकता है और यदि वह शासक है तो अपराधियोंको दण्ड भी दे सकता है किन्तु जान-बूझकर या अयत्नाचारपूर्वक किसी प्राणीका घात नहीं कर सकता है। अतः धर्मके नामदेवताके नामपर मन्त्र के लिए, भोजनके लिए या औषध के लिए किसीकी जान लेना अत्यन्त अनुचित है।
पर,
६. हिंसा के दो भेद हैं आरम्भी हिंसा और अनारम्भी या संकल्पो हिसा । मुनिके लिए दोनों हिंसा त्याज्य हैं किन्तु गृहस्थ केवल अनारम्भी हिंसाका ही त्याग कर सकता है, आरम्भीका नहीं । यह दोनों भेद भी हमें आचार्य अमितगतिके उपासकाचार में ही देखनेको मिले । उसीसे सागारधर्मामृत वगैरह में लिये गये हैं ।
हिंसा के आजकल चार भेद किये जाते हैं - संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । आरम्भी हिंसाके हो आरम्भ आदि तीन भेद दिये गये प्रतीत होते हैं । किन्तु किसी ग्रन्थमें ये भेद हमने नहीं देखे । अब हम अहिंसाणुव्रत का पालन करनेके लिए शास्त्रकारोंने जो नियमोपनियम बनाये उनपर विचार
करेंगे |
१. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में तो हिंसाको छोड़नेके इच्छुक जनोंके लिए सबसे प्रथम मद्य मांस मधु और पांच उदुम्बरोंका त्याग कर देना आवश्यक बतलाया है तथा मक्खनको भी त्याज्य ठहराया है । रातमें भोजन करने का भी निपेध किया है ।
२. सोमदेव सूरिने निम्न बातें बतलायी हैं,
(१) घरके सब काम देख-भालकर करना चाहिए और सब पेय पदार्थोंको वस्त्रसे छानकर काममें लाना चाहिए ।
(२) आसन, शय्या, मार्ग, अन्न तथा और भी जो वस्तुएँ हैं उन्हें बिना देखे काममें नहीं लाना चाहिए । (३) मांस वगैरहको देखकर, छूकर, भोजनमें यह मांसके समान है ऐसा खयाल हो जानेपर, तथा अत्यन्त करुण चीत्कार सुनकर यदि भोजन करते हुए हों तो भोजन छोड़ देना चाहिए ।
(४) रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए ।
(५) पहले अपने आश्रितों को खिलाकर तब स्वयं खाना चाहिए ।
(६) जिसमें जन्तु हों ऐसे अचार,
पेय, अन्न, फल, फूल वगैरह नहीं एकत्र करने चाहिए ।
(७) जिस सब्जी के अन्दर छेद हो गये हैं उसे फेंक देना चाहिए। अनन्तकाय वनस्पतिका सेवन नहीं करना चाहिए ।
(८) चना उड़द वगैरह यदि पुराना हो गया हो तो उसे दलकर ही काममें लाना चाहिए | सब प्रकार की फलियोंको खोलकर हो काममें लाना चाहिए ।
(९) जो बहुत आरम्भी और बहुत परिग्रही है वह अहिंसक नहीं हो सकता ।
(१०) ठग और दुराचारी मनुष्य में दया नहीं रहती ।
(११) पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और तृण वगैरहका उपयोग भी उतना ही करना चाहिए जितने से प्रयोजन हो ।
(१२) मदसे अथवा प्रमादसे द्वीन्द्रिय आदि श्रस जीवोंका यदि घात हो जाये तो आगमानुसार उसका प्रायचित्त लेना चाहिए ।
३. आचार्य अमितगतिने मद्य मांस मधु, पाँच उदुम्बर, रात्रिभोजन और मक्खनको सबसे प्रथम त्याज्य बतलाया है ।