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उपासकाध्ययन
होनेसे धीवर तो नहीं मारते हुए भी पापी है और किसान मारते हुए भी पापी नहीं है। अर्थात् हिंसा करना और हिंसा हो जाना इन दोनोंमें अन्तर है। घीघर मछली मारनेके इरादेसे जाल डाले हुए बैठा है, उसका ध्यान मछली मारने की ओर है, अतः जालमें एक मछलीके न आनेपर भी वह पापी है और किसान अन्न उत्पन्न करनेके भावसे हल जोतता है, जोतते समय अनेक जीव मर जाते हैं मगर वह आनुषंगिक हिंसा है, कृषि आदि आरम्भ करते हुए हो जाती है, अतः किसान पापी नहीं है ॥ ३४० - ३४१ ॥
आचार्य अमितगतिने अपने उपासकाचारके छठे परिच्छेदमें हिंसा और अहिंसाका अच्छा विवेचन किया है और पूर्वोक्त सभी बातोंका एक जगह संकलन कर दिया है। विशेषता इतनी है कि उन्होंने हिंसाके दो भेद किये हैं, एक आरम्भी हिंसा और दूसरी अनारम्भी हिंसा । और लिखा है कि जो गृहत्यागी मुनि हैं वे तो दोनों प्रकारकी हिंसा नहीं करते । किन्तु जो गृही है वह अनारम्भी हिंसा तो छोड़ देता है, किन्तु आरम्भी हिंसा नहीं छोड़ सकता,
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“हिंसा द्वेधा प्रोफाssरम्भानारम्भभेदतो दक्षैः । गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि श्रायते तां च ॥ ६ ॥ गृहवाससेवनरतो मन्दकषायः प्रवर्तितारम्भः । आरम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियतम् ॥७॥”
प्रारम्भ में रत्नकरण्ड श्रावकाचारसे जो अहिंसाणुव्रतका लक्षण दिया है उसमें मन वचन और कायके कृत कारित और अनुमत विकल्पोंके द्वारा नौ प्रकारसे त्रस जोवोंको हिंसा न करनेको अहिंसाणुव्रत बतलाया है । जो श्रावक घर छोड़ चुके हैं वे ही नौ प्रकारसे अहिंसाका पालन कर सकते हैं, किन्तु जो घर में रहते हैं वे अनुमत हिंसा से नहीं बच सकते; अतः गृहवासी श्रावक छह प्रकारसे हिंसाका त्याग करता है । किन्तु गृहत्यागो श्रावक नो प्रकारसे हिंसाका त्याग करता है। आचार्य अमितगतिने उपासकाचार में ऐसा लिखा है, "त्रिविधा द्विविधेन मता विरतिहिंसादितो गृहस्थानाम् । त्रिविधा त्रिविधेन मता गृहचारकतो निवृत्तानाम् ॥ १९ ॥ ”
पं० आशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत में उक्त बातका अच्छा खुलासा किया है और अमितगतिके उक्त विश्लेषणको अपनाकर अणुव्रत के लक्षण में ही उसे सम्मिलित कर दिया है,
"विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः ।
क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाद्यणुव्रतानि स्युः ॥ ५॥ अ० ४ ।”
अर्थात मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से स्थूल हिंसा आदि पाचों पापोंके त्यागनेको अणुव्रत कहते हैं । किन्तु जो गृहवासी श्रावक है उसके मन वचन काय और कृत कारितसे स्थूल हिंसा आदिको त्यागना अणुव्रत है ।
पं० आशाधरजीने अहिंसाणुव्रतका वर्णन करते हुए कोई ऐसी नयी बात तो नहीं कही जो उनसे पूर्व के ग्रन्थोंमें वर्तमान न हो । किन्तु उन्होंने अपनी शैलीसे उन बातोंका अच्छा खुलासा किया है। हुए वे लिखते हैं,
गृही श्रावक आरम्भी हिंसाका त्याग नहीं कर सकता इसका उपपादन करते
"गृहवासी विनारम्भान्न चारम्भो विना वधात् ।
त्याज्यः स यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः ||१२|| "
अर्थात् बिना उद्योग-धन्धा किये घर में नहीं रहा जा सकता और आरम्भ कोई ऐसा है नहीं जिसमें हिंसा न होती हो । अतः गृहस्थको प्रयत्न करके मुख्य संकल्पी हिंसा को छोड़ देना चाहिए । किन्तु जो कृषि आदि करते हुए हिंसा हो जाती है उसका त्याग करना तो गृहस्थ के लिए शक्य नहीं है ।
यह ठीक है कि चूंकि गृहस्थ विना आरम्भ किये अपना निर्वाह नहीं कर सकता इसलिए उसे आरम्भ