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उपासकाध्ययन
कि वसुनन्दिके मतसे दर्शनिक श्रावक सात व्यसन छोड़ चुकता है। और सात व्यसनोंमें परनारी और वेश्या दोनों आ जाती हैं। अतः जब वह आगे बढ़कर दूसरो प्रतिमा धारण करता है तो वहां ब्रह्माणुव्रतमें वह स्वपत्नीके साथ भी पर्वके दिन काम भोग आदिका त्याग करता है। मगर स्वामी समन्तभद्रके मतसे दर्शनप्रतिमामें सप्त व्यसनोंके त्यागका विधान नहीं है, अतः उनके मतसे दर्शनप्रतिमाका धारी जब व्रतप्रतिमा धारण करता है तो उसका ब्रह्माणुव्रत वही है जो अन्य श्रावकाचारोंमें बतलाया है। यह पं० आशाधरजीका समन्वय है।
किन्तु ब्रह्माणुव्रतको स्वदारसन्तोष और परदारनिवृत्ति नामके दो भेदोंमें विभाजित अन्य किसी भी आचार्यने नहीं किया। स्वामी समन्तभद्रने तो दोनोंको एक ही व्रतका नामान्तर बतलाया है। हाँ, श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने अपने योगशास्त्रमें अवश्य ये भेद किये हैं और पं० आशाधरने भी इन्हें वहींसे लिया प्रतीत होता है । यह सागारधर्मामृत और योगशास्त्रकी टोकाओंका मिलान करनेसे बिलकुल स्पष्ट हो जाता है। अतः यद्यपि यह ठीक है कि पं० सोमदेवका उक्त लक्षण प्रारम्भिक श्रावकके लिए है तथापि यह स्पष्ट है कि ब्रह्माणुव्रतका इस तरहका लक्षण अन्य किसी भी श्रावकाचारमें हमने नहीं देखा और इसलिए यह सामयिक परिस्थितिसे प्रभावित है। इतना लिखकर अब हम ब्रह्माणुव्रतके अतिचारोंपर आते हैं। ब्रह्माणुव्रतके अतिचार
ब्रह्माणुव्रतके अतिचार तत्त्वार्थसूत्र में इस प्रकार बताये हैं - परविवाहकरण, इत्वरिका परिगृहीतागमन, इत्वरिका अपरिगृहीतागमन, अनंगक्रीडा, कामतीव्राभिनिवेश । चारित्रसार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, अमितगति श्रावकाचार और लाटीसंहितामें ये ही अतीचार बतलाये हैं । रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें 'इत्वरिका गमन' नामका एक ही अतिचार है, दूसरेकी पूर्ति विटत्व नामके अतिचारसे की गयी है । शेष तीन अतिचार उक्त अतिचारोंके समान हैं। पं० आशाधरने रत्नकरण्डके अनुसार ही पांच अतिचार गिनाये हैं। पं० सोमदेवने इत्वरिकागमनके स्थानमें 'परस्त्रीसंगम' नामका अतिचार गिनाया है और विटत्वके स्थानमें 'रतिकतव्य' ।
तत्त्वार्थसूत्रकी सर्वार्थसिद्धि आदि टीकाओंमें उक्त अतीचारोंका जो स्वरूप बतलाया है उसके अनुसार दूसरेका विवाह करना पहला अतिचार है। जो अन्य पुरुषोंके पास जाती है उस स्त्रीको इत्वरी कहते हैं । जिसका एक पति होता है वह परिगृहीता है और जिसका कोई स्वामी नहीं ऐसी वेश्या वगैरह अपरिगृहीता हैं, उनमें जाना. ये दूसरा और तीसरा अतिचार है । कामसेवनके अंगसे अन्यत्र कामक्रीडा करना अनंगक्रीडा हैं और कामभावकी अधिकता पांचवा अतीचार है।
पं० आशाधरने सागारधर्मामतको टोकामें इन अतिचारोंका मच्छा खुलासा किया है जो हेमचन्द्राचार्यके योगशास्त्रका ऋणी है। उसमें उन्होंने ब्रह्माणुव्रतके जो दो भेद किये हैं, उनके अनुसार ही 'इत्वरिकागमन'का व्याख्यान भी किया है, जो अन्य दिगम्बर साहित्यसे मेल नहीं खाता।
इत्वरिकागमनकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, इत्वरिका अर्थात व्यभिचारिणी स्त्रियां दो प्रकारकी होती हैं, एक जो खुला व्यभिचार करती है उन्हें वेश्या कहते हैं और दूसरी वे, जो यद्यपि अस्वामिका होती हैं किन्तु खुला व्यभिचार नहीं करती। दोनों प्रकारको स्त्रियोंका सेवन करना स्वदारसन्तोषव्रतका अतिचार है। क्योंकि उनका शुल्क चुका देनेसे कुछ कालके लिए वे 'स्वदार' हो जाती हैं। इसलिए प्रतकी कथंचित् रक्षा हो जातो है । और वास्तवमें वह स्वदार नहीं है अतः कथंचित् प्रतभंग भी होता है।
इस प्रकार 'इत्वरिकागमन'को स्वदारसन्तोषव्रतका अतिचार बतलाकर पं० आशाधरजी उसे परदारनिवृत्ति नामक दूसरे व्रतका अतिचार इस प्रकार बतलाते हैं,
किसी मनुष्यकी रखेली वेश्याके साथ सहवास करनेसे परदारनिवृत्तिव्रत भंग होता है क्योंकि वह वेश्या उस समय एक तरहसे परदार है। किन्तु लोकमें वह 'परदारा' नहीं मानी जाती अत: व्रतभंग नहीं
१. योगशास्त्र पृ० ३४८ ।