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उपासकाध्ययन
अर्थात उस गुरु पात्रकेसरीकी उत्कृष्ट महिमा है जिसकी भक्तिसे प्रेरित होकर पपावती बौद्धोंके त्रिलक्षणवादका खण्डन करनेके लिए सहायक हुई।
उक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि सोमदेवके समयमें तथोक्त शासन देवताओंकी बड़ी प्रतिष्ठा दक्षिण देशमें थी और उन्हें जिनेन्द्रदेवके समकक्ष मानकर पूजा जाता था।
इसीसे उन्होंने अपने उपासकाध्ययनमें ध्यानके प्रकरणमें लिखा है, तीनों लोकोंके द्रष्टा जिनेन्द्रदेव और व्यन्तरादिक देवताओंको जो जा-विधानोंमें समान रूपसे देखता है वह नरकमें जाता है। परमागममें शासनको रक्षाके लिए उनकी कल्पना की गयी है। अतः सम्यग्दृष्टियोंको पूजाका अंश देकर उनका सम्मान करना चाहिए । एकमात्र जिन-शासनकी भक्ति करनेवाले व्रती सम्यग्दृष्टियोंपर तो वे इन्द्रसहित स्वयं ही प्रसन्न होते हैं।'
उक्त कथन बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्रथम तो इनके द्वारा व्यन्तरादिक देवताओंको जिन-शासनको रक्षाके लिए कल्पित बतलाया है । कल्पित वस्तु वास्तविक नहीं होती। इनको कल्पनाका कारण पूर्वमें बतलाया है । दूसरे, सम्यग्दृष्टियोंसे कहा गया है कि वे उनको यज्ञांश देकर सम्मान करें, नमस्कार या स्तुति आदिके द्वारा नहीं, इसके अधिकारी तो जिनेन्द्रदेव ही हैं । किन्तु यतः व्रती सम्यग्दृष्टियोंपर वे स्वयं ही प्रसन्न होते हैं । अतः उनके लिए यज्ञांशदानका भी विधान नहीं किया है। इसीसे पं० आशाधरने सागारधर्मामतके तीसरे अध्यायके सातवें श्लोककी टोकामें दार्शनिक श्रावकका कथन करते हुए लिखा है कि आपत्तिसे व्याकुल होते हुए भी प्रथम प्रतिमाघारी श्रावक उसको दूर करनेके लिए कभी भी शासन-देवता वगैरहको नहीं भजता।
सोमदेवने शासन-देवताओंको चर्चा ध्यानके प्रकरणमें की है। इसका कारण सम्भवतया यह है कि तन्त्र-मन्त्र के आराधकोंके द्वारा शासन-देवताओंकी जो आराधना की जाती थी, उसीका निषेध करनेके लिए ऐसा किया गया है।
सोमदेवकृत यशस्तिलक तथा उसके अन्तमें स्थित उपासकाध्ययनको बहुविध सामग्रीका परिचय करनेके बाद यह निःसंदेह कहा जा सकता है कि यशस्तिलकको न केवल कथात्मक उपयोगिता है. प्रत्युत बहविध सामग्रीको दृष्टिसे यह एक अमूल्य ग्रन्थ है।
उत्तर भाग
श्रावकाचारोंका तुलनात्मक पर्यवेक्षण 'चारित्तं खलु धम्मो'- चारित्र हो धर्म है, और वह चारित्र या आचार मुनि और श्रावकके भेदसे दो प्रकारका है। जो यह जानते हुए भी कि सांसारिक विषय-भोग हेय है मोहवश उन्हें छोड़ने में असमर्थ होता है वह गृहमें रहकर श्रावकाचारका पालन करता है। श्रावकाचारका मतलब होता है-जैन गृहस्थका धर्म । जैन गृहस्थको श्रावक कहते हैं । इसका प्राकृत रूप 'सावग' होता है। संस्कृत 'श्रावक' और प्राकृत 'सावग' रूपके भ्रष्ट मिश्रणसे बना 'सरावगी' शब्द किसी समय जैन गृहस्थोंके लिए बहुत अधिक व्यवहृत होता था। अब तो सब अपनेको जैन ही लिखते हैं और जैन हो कहे जाते हैं।
१. सो० उपा० श्लो० ६९७-६९९ । २. "आपदाकुलितोऽपि दर्शनिकस्तनिवृत्यर्थ शासनदेवतादीन् कदाचिदपि न मजते ।"