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उपासकाध्ययन
करते हुए मद्य-मांसादिकके त्याग करनेका विधान नहीं किया । उदाहरणके लिए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सोमदेव उपासकाचार, अमितगति उपासकाचार, वसुनन्दि श्रावकाचार और सागारधर्मामृतको देखा जा सकता है।
हम पहले लिख आये हैं कि पं० आशाधर बहुश्रुत विद्वान् थे। उन्होंने इस बातको अवश्य भांपा कि जब अष्टमलगुणोंमें मद्य-मांसादिकका त्याग कर दिया जाता है तो मोगोपभोगपरिमाणव्रतमें उसकी आवश्यकता नहीं रहती। इसोसे उन्होंने अपने सागारधर्मामृतमें भोगोपभोगपरिमाणवतका वर्णन करते हुए लिखा है कि जिन पदार्थोंका सेवन करनेसे त्रस जीवोंका घात होता है या बहुत जीवोंका घात होता है या प्रमाद उत्पन्न होता है, मांस मधु और मद्यकी तरह हो उनका भी त्याग कर देना चाहिए। अर्थात् मद्य मांस और मधुका त्याग तो वह अष्टमूलगुण धारण करते समय ही कर देता है, किन्तु व्रतोंमें उन वस्तुओंके सेवनका भी त्याग कर देता है जिनमें उक्त बुराइयां होती हैं ।
अब प्रश्न यह होता है कि जिन्होंने अष्टमूलगुणका निर्देश नहीं किया और भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें मद्यादिकके त्यागका विधान किया, उनके मतसे क्या अणुव्रती श्रावक मद्यादिकका सेवन कर सकता था? हमारा उत्तर है-'नहीं।' तब क्यों उन्होंने ऐसा विधान किया ? विधान इसलिए किया कि लोकमें मद्य-मांसादिकको भी भोग्य माना जाता है और पहले अहिंसाणवतका निर्देश करके भी इन वस्तुओंका नामोल्लेखपूर्वक त्याग कराया नहीं गया। अतः जैसे आजकल कन्दमूलके त्यागी कुछ महानुभाव सूखे आलू खाने लगे हैं वैसे ही अहिंसाणुव्रती यदि मृत पशुका मांस खाने लगे तो उसे कौन रोके । बुद्धदेव अहिंसाके पुजारी थे किन्तु "त्रिकोटिपरिशुद्ध मांस' को भिक्षु ओंके लिए ग्राह्य बतलाते थे। अतः भोगोपभोगपरिमाणवतको व्याख्यामें यह खुलासा कर देना आवश्यक हआ कि व्रतीको
मद्य मांस और मधका त्याग तो सदाके लिए कर देना चाहिए। ४. समन्तभद्र स्वामीके बाद अष्टमूलगुणोंका स्पष्ट विधान चारित्रसारके उल्लेखके अनुसार महापुराणमें है।
उसमें स्वामोजीके मूल-गुणोंमें थोड़ा-सा परिवर्तन करके मधुके स्थानमें जुआको त्याज्य बतलाया है। ऐसा करनेकी आवश्यकता क्यों प्रतीत हुई इस सम्बन्धमें हम कुछ भी कहनेमें असमर्थ हैं; किन्तु जिनसेनके महापुराणमें वह श्लोक ही नहीं है और न अष्टमूलगुण रूपसे ही किन्हीं व्रतोंका निर्देश है । ५. आगे चलकर उक्त अष्टमूलगुणोंमें क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ, पांच अणुव्रतोंकी परम्परा सम्भवतः
आगे नहीं चल सकी। सामान्य धावक लोग उसके पालनमें अशक्त प्रतीत हुए। अतः उनके स्थानमें पांच उदुम्बर फलोंको स्थान दिया गया। यह कार्य किसने किया यह तो हम निश्चित रीतिसे कहने में असमर्थ हैं, किन्तु इस परिवर्तनको उत्तर कालके सभी श्रावकाचारोंने अपनाया। जैसा कि हम पहले बतला आये हैं पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सोमदेव उपासकाध्ययन, अमितगति उपासकाचार, पद्मनन्दि पंचविशतिका, सावयधम्मदोहा, सागारधर्मामृत और लाटीसंहितामें पांच उदुम्बर फलों और तीन मकारोंके त्यागको अष्टमूलगुण बतलाया है। ___यह हम पहले लिख आये हैं कि हरिवंशपुराणमें जो नियम बतलाया है उसमें क्षीरी वृक्षके फलोंको भी त्याज्य ठहराया है तथा आदिपुराणमें व्रतावतरण क्रियाका वर्णन करते हुए गृहस्थके लिए मधु मांसके साथ पंच उदुम्बरोंको भी त्याज्य बतलाया है और आदिपुराण तथा हरिवंशपुराण पांच उदुम्बर फलों और तीनों मकारोंके त्यागको अष्टमूलगुण बतलानेवाले उक्त सभी श्रावकाचारोंसे पूर्व के हैं। अतः यद्यपि क्षोरी वृक्षके फलोंके साथ-साथ मद्य-मांस और मधुको प्रारम्भिक रूपमें त्यागनेका
१. "पलमधुमघवदखिसखसबहधातप्रमादविषयोऽर्थः।
त्याज्योऽन्यथाऽप्यनिष्टोऽनुपसेव्यश्च व्रतादि फलमिष्टम् ।।१५।। अ. ५।" २. बुद्धचर्या, पृ० ४३३ ।