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प्रस्तावना
२. तत्त्वार्थसूत्र एक सूत्रग्रन्य है और उसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय सात तत्त्व हैं । अतः उसमें या उसको ___टीकाओंमें श्रावकके अष्टमूलगुणोंका निर्देश न होना भी वस्तुस्थितिपर अधिक प्रकाश नहीं डालता। ३. पद्मचरित, वरांगचरित और हरिवंशपुराण ये तीनों पौराणिक काव्य-ग्रन्थ हैं। वरांगचरितमें वर
दत्तं मुनिके द्वारा जो उपदेश दिया गया है, एकसे दस तक सात स!में वह निबद्ध है किन्तु उसमें द्रव्यानुयोग और करणानुयोगका ही वर्णन है । ग्यारहवें सर्गमें वरांग वरदत्तसे पंचाणुव्रत ग्रहण करता है। बाईसवें सर्गमें अपनी रानोके पूछनेपर वरांग उसे धर्म श्रवण कराता है । उसमें भी वह श्रावकके बारह व्रतोंको गिनाकर दान तप शील और पूजाका उपदेश देता है और उनमें से भी पूजापर अधिक जोर देते हए जिनबिम्ब और जिनालयोंके निर्माणको उत्तम बतलाता है। श्रावकाचार या मुनि-आचारके वर्णनकी ओर ग्रन्थकारकी प्रवत्ति ही नहीं प्रतीत होती। अतः वरांगचरितमें अष्टम लगुण या उसके अन्तर्गत वस्तुओंका निर्देश न होना भी वस्तुस्थितिपर अधिक प्रकाश नहीं डालता।
रहे पद्मचरित और हरिवंशपुराण। दोनोंमें श्रावकके बारह व्रतोंका वर्णन करके अन्तमें नियम रूपसे मद्य मांसादिककी विरतिका विधान किया गया है। पद्मवरितमें तो मधु, मद्य, मांस, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्यासंगमके त्यागको नियम बतलाया है, किन्तु हरिवंशपुराणमें तो इनमें उदुम्बर फलोंको भी सम्मिलित कर लिया गया है। फिर भी मूलगुण रूपसे निर्देश न करके, नियम रूपसे उनका उल्लेख किया जाना अवश्य ही अन्वेषकोंका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करता है। यदि स्वामी समन्तभद्राचार्य के द्वारा रचे गये रत्नकरण्डश्रावकाचारमें अष्टमूलगुणोंका निर्देश करनेवाला पद्य न होता तो हम तो यही सम्भावना करते कि श्रावकके मूलगुण समयको आवश्यकताको देखकर नौवीं शतीके आचार्योंके द्वारा ही निबद्ध किये गये हैं, प्राचीन परम्परा तो श्रावकके बारह व्रतोंका ही विधान करती है। किन्तु रत्नकरण्डश्रावकाचारमें उक्त पद्य जिस रूपमें स्थित है उससे उसे प्रक्षिप्त भी नहीं कहा जा सकता और न समर्थ प्रमाणोंके अभावमें रत्नकरण्डको ही किसी अर्वाचीन आचार्यको कृति माना जा सकता है। उसमें जो गुरुके लिए पाखण्डी शब्दका प्रयोग किया गया है वह उसकी प्राचीनताको सूचित करता है। प्राचीन समयमें पाखण्डी शब्द साधुके लिए व्यवहृत होता था। उत्तर कालमें उसका अर्थ ढोंगी हो गया। अन्य भो कई विषेशताएं उसमें हैं, जो उसकी प्राचीनताको सूचित करती हैं। परन्तु रत्नकरण्डमें पहली प्रतिमाका जो स्वरूप बतलाया गया है वह और भो सन्देह उत्पन्न कर देता है। उसमें पहली प्रतिमावाले श्रावकके लिए मूलगुण पालनका भी विधान नहीं है, जब कि स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा और वसुनन्दिश्रावकाचार आदि ग्रन्थोंमे पहलो प्रतिमावाले श्रावकके लिए मद्यमांसादिकके त्यागका स्पष्ट निर्देश किया है। जैसे दूसरो प्रतिमावाले श्रावकके लिए निरतिचार पांच अणुव्रतों और सात शोलवतोंका पालन करना आवश्यक बतलाया है वैसे ही पहली प्रतिमावाले श्रावकके लिए अष्टमूलगुणोंका विधान होना चाहिए था। अन्यथा जब श्रावकके ग्यारह हो पद बतलाये गये हैं तब अष्टमूलगुणोंका पालन-किस पदमें किया जायेगा। टीकाकार प्रभाचन्द्रको भी यह चोज खटकी जान पड़ती है । इसीसे उन्होंने 'तत्त्वपथगृह्यः' का व्याख्यान करते हुए 'तत्त्व यानी व्रतका पथ यानी मार्ग अर्थात् मद्यादि निवृत्तिरूप अष्टमूलगुण' ऐसा किया है। किन्तु यह उनकी अपनी सूझ है। - उससे यह प्रमाणित नहीं होता कि ग्रन्थकारने मूलगुणोंके लिए 'तत्त्वपथगृह्यः' पद दिया है ।
इसके साथ ही साथ भोगोपभोगपरिमाण नामक व्रतमें जो मद्य मांस मधु और कन्दमूल आदिका त्याग बतलाया है वह भी विचारणीय हो जाता है। जब इन चीजोंका त्याग अष्टमूलगुण रूपसे श्रावक पहले ही कर चुकता है तब भोगोपभोगपरिमाणवतमें पुनः उसका विधान करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती। जिन श्रावकाचारोंमें अष्टमूलगुणका विधान है उनमें भोगोपभोगपरिमाणव्रतका वर्णन
१. "श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु ।" २० श्रा० ।