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प्रस्तावना
चामुण्डरायने स्वरचित चारित्रसारमें, जो विक्रमको ग्यारहवीं शताब्दीके पूर्वार्धमें रचा गया है, 'तथा चोक्तं महापुराणे' लिखकर यह श्लोक उद्धृत किया है,
"हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् ।
तान्मांसान्मयाद्विरतिगृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणाः ॥” अर्थात् स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म और स्थूल परिग्रह तथा जुआ, मांस और मद्यसे विरति, ये गृहस्थोंके आठ मूलगुण है ।
विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीके विद्वान पं. आशाधरने अपने सागारधर्मामत तथा उसकी टोकामें भी महापुराणके उक्त मतका निर्देश किया है और टिप्पणोंमें उक्त श्लोक उद्धत किया है। किन्तु जिनसेनाचार्यकृत महापुराणमें उक्त श्लोक नहीं मिलता और न उक्त श्लोकके द्वारा कहे गये आठ मूलगुण ही मिलते हैं। अड़तीसवें पर्वमें व्रतावतरण क्रियाका वर्णन करते हुए लिखा है, मधु और मांसका त्याग, पांच उदुम्बरफलोंका त्याग और हिंसादिका त्याग ये उसके सार्वकालिक-सदा रहनेवाले व्रत हैं।
इसमें अष्टमूलगुण शब्दका व्यवहार नहीं किया गया है, और मधुके त्यागका विधान किया है, जब कि मद्य को नहीं गिनाया है । अत: चारित्रसारमें उद्धृत उक्त श्लोकके साथ उसको संगति नहीं बैठती।
अमृतचन्द्रसूरिने अपने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें लिखा है कि हिंसासे बचनेको अभिलाषा रखनेवाले पुरुषोंको सबसे पहले मद्य मांस मधु और पाँच उदुम्बर फलोंको छोड़ देना चाहिए। ये आठों घोर पापके घर है। इन्हें छोड़नेसे हो मनुष्यको बुद्धि निर्मल होतो है और तभी वह जिनधर्मके उपदेशका पात्र होता है।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यद्यपि इन्हें ग्रन्थकारने मूलगुण नहीं कहा, किन्तु उन्हें अभीष्ट यही प्रतीत होता है कि ये श्रावकके मलगुण हैं। वि० सं० १०१६ में रचे गये सोमदेव उपासकाध्ययनमें भी अष्टमलगुणोंको इसी रूपमें गिनाया है।
“मद्यमांसमधुत्यागाः सहोदुम्बरपञ्चकैः ।
अष्टावेत गृहस्थानामुक्का मूलगुणाः श्रुते ॥" देवसेन आचार्यने अपने भावसंग्रहमें भी ये ही अष्टमूलगुण बतलाये हैं,
"महुमज मंस विरई चाओ षुण उंबराण पंचण्हं ।
अटुंदे मूलगुणा हवंति फुट देसविरयम्मि ॥३५६॥" पद्मनन्दि पंचविंशतिकामें भी ये ही मूलगुण बतलाये हैं,
"त्याज्यं मांसं च मद्यं च मधूदुम्बरपञ्चकम् ।
अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ता गृहिणो दृष्टिपूर्वकाः ॥२३॥" आचार्य अमितगतिने अपने सुभाषितरत्नसन्दोहमें, जो वि० सं० १०५० में रचकर पूर्ण हुआ था,
१. "मधुमांसपरित्यागः पन्चोदुम्बरवर्जनम् ।
हिंसादिविरतिश्चास्य व्रतं स्यात् सार्वकालिकम् ।। १२२ ॥" २. “मचं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बरफलानि यत्नेन । हिंसाब्युपरतिकामैर्मोक्तन्यानि प्रथममेव ॥६१॥ अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनानि परिवर्त्य । जिनधर्मदेशनाया मवन्ति पात्राणि शदधियः ॥७४॥"