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प्रस्तावना
विधान हमें हरिवंशपुराण और आदिपुराणमें सर्वप्रथम देखनेको मिलता है तथापि अष्टमूलगुण रूपसे उनका उल्लेख उक्त श्रावकाचारोंमें ही पाया जाता है। यहां हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि यह हम वर्तमानमें उपलब्ध साहित्यके आधारपर लिख रहे हैं। नवीन अन्य प्रकाशमें आनेपर नयी बातें भी प्रकाशमें आ सकती हैं।
उक्त श्रावकाचारोंके पौर्वापर्यको दृष्टिमें रखते हुए हमारा विचार है कि उक्त अष्टमूलगुणोंका सबसे प्रथम निर्देश पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें किया गया है । यह हम पहले लिख आये हैं कि पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें यद्यपि इन्हें मूलगुण नहीं लिखा तथापि उससे व्यक्त यही होता है कि ये श्रावकके अष्टमूलगुण हैं । अन्य श्रावकाचारोंमें तो इन्हें अष्टमूलगुण हो बतलाया है। इससे भी ऐसा लगता है जब वे अष्टमलगुण रूपसे व्यवहृत नहीं हुए थे उस समय पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें धावकके लिए प्रथम उनका त्याग भावश्यक बतलाया गया और बादको वे ही अष्टमूलगुण रूपसे प्रसिद्ध हो गये । श्रावकाचारोंका पौर्वापर्य
प्रकरणवश यहाँ उक्त श्रावकाचारोंके पौर्वापर्य के सम्बन्धमें लिखना आवश्यक है।
पं. आशाधरने अपने सागारधर्मामतकी प्रशस्तिमें लिखा है कि उन्होंने उसको टीका वि० सं० १२९६ में पूर्ण को और अनगारधर्मामतकी टीका वि० सं० १३०० में पूर्ण को। इन टीकाओंमें पं० आशाधरने अमतचन्द सूरि, सोमदेव, अमितगति, वसुनन्दि और पद्मनन्दिका न केवल जगह-जगह नामोल्लेख किया है किन्तु इनके श्रावकाचारोंसे बहुत-से पद्य भी जगह-जगह उद्धत किये हैं। अतः यह तो निश्चित ही है कि ये सब आचार्य पं० आशाधरसे पहलेके हैं ।
वसुनन्दिने मूलाचारकी वृत्तिमें अमितगतिके श्रावकाचारसे पांच श्लोक उद्धृत किये हैं, इससे यह भी स्पष्ट है कि अमितगति वसुनन्दिसे भी पूर्व हुए हैं । अमितगतिने अपना सुभाषितरत्नसन्दोह वि० सं० १०५० में रचा है और सोमदेवने अपना उपासकाचार वि० सं० १०१६ में रचकर पूर्ण किया है। अतः अमितगतिके उपासकाचारसे सोमदेवका उपासकाध्ययन अवश्य ही पहले रचा गया है। अमितगतिका रचनाकाल वि.सं. १०५० से १०७३ तक पाया जाता है। अमितगतिके श्रावकाचार पर पुरुषार्थसिद्ध्युपायकी स्पष्ट छाप है। अत: पुरुषार्थसिद्ध्युपाय निश्चय ही अमितगति-श्रावकाचारसे पूर्वका है। किन्तु सोमदेवके उपासकाचारपर पुरुषार्थसिद्ध्युपायका कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता।
१. "रसजानां च बहुना जीवानां योनिरिष्यते मद्यम् ।
मयं मजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥१३॥"-पुरु० सि.। . "ये भवन्ति विविधाः शरीरिणस्तत्र सूक्ष्मवपुषो रसांगिकाः ।
तेऽखिला झटिति यान्ति पञ्चतां निन्दितस्य सरकस्य पानतः ॥६॥"-अमित श्रा। "अर्था नाम य एते प्रांणा एते बहिश्वराः पुंसाम् ।। हरति स तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ॥१०॥"-पुरु• सि. "यो यस्य हरति वित्तं स तस्य जीवस्य जीवनं हरति ।
आश्वासकरं बाह्यं जीवानां जीवितं वित्तम् ।।६१॥"-अमित श्रा० । "प्रतिरूपकम्यवहारः स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् ।
राजविरोधातिक्रमहीनाधिकमानकरणे च ॥१८५॥"-पु. सि.। "व्यवहारः कृत्रिमक: स्तेननियोगस्तदाहृतादानम् । ते मानबैपरीन्यं विरुवराज्यव्यतिक्रमणम् ॥५॥"-अमि० श्रा०।।
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