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उपासकाध्ययन
बैठता है । किन्तु उत्तरकालमें तो सभी फलोंका रस लिया जाने लगा। सोमदेवने दाख, खजूर, केला, इक्षु, आंवला, आम और सुपारी आदिके रससे भी भगवान्का अभिषेक कराया है ।
वैदिक पूजा-पद्धति
यह हम पहले लिख आये हैं कि सोमदेव सूरि जैन सिद्धान्तको तरह वैदिक धर्म और साहित्यसे भी पूर्ण परिचित थे और उनपर उसका प्रभाव भी था । अतः उन्होंने अपने उपासकाध्ययन में जिस पूजा पद्धतिका वर्णन किया है वह उस प्रभावसे अछूती नहीं लगती। इसलिए यहाँ वैदिकपूजा-पद्धतिका भी संक्षिप्त परिचय देना अप्रासंगिक न होगा ।
प्रारम्भ में यह स्पष्ट कर दिया है कि वैदिक देवताओंके उद्देशसे अग्निमें द्रव्यका हवन किया जाता विश्लेषण करते हुए लिखा है कि तीनोंमें स्वद्रव्यका त्याग करना - पूजा है इसलिए पूजा भी याग ही है ।
परम्परामें यज्ञोंकी ही प्रधानता थी । यज्ञोंमें इन्द्र आदि था। अतः शाबरभाष्यकारने याग, होम और दानका त्याग समान है । अतः चूँकि देवता के उद्देशसे द्रव्यका
वैदिक धर्ममें पूजाके सोलह उपचार बतलाये है - आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, अनुलेपन या गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, नमस्कार, प्रदक्षिणा और विसर्जन या उद्वासन । विभिन्न ग्रन्थों में विभेद भी पाया जाता है, कुछमें यज्ञोपवीतके पश्चात् भूषण और प्रदक्षिणा या नैवेद्य के बाद ताम्बूल पाया जाता है । इसलिए किन्हीं ग्रन्थोंमें उपचारोंकी संख्या अठारह है। कुछमें आवाहन नहीं हैं और आसन के बाद स्वागत और आचमनीयके बाद मधुपर्क है । कुछ में स्तोत्र और प्रणाम भी हैं । जो वस्त्र और अलंकार नहीं दे सकता, वह सोलह में से केवल दशोपचारी पूजा करता है । और जो इतना भी नहीं कर सकता वह पंचोपचार पूजा करता है। और जो पंचोपचार भी करनेमें असमर्थ है वह केवल पुष्पोपचार कर सकता है ।
प्रतिष्ठित प्रतिमाको पूजामें आवाहन और विसर्जन नहीं होता, केवल चौदह ही उपचार होते हैं । अथवा आवाहन और विसर्जन के स्थान में मन्त्रोच्चारणपूर्वक पुष्पांजलि दी जाती है। नूतन प्रतिमा में षोडशोपचारी ही पूजा होती है । 3
प्रतिमाका स्नान पंचामृत से होता है। दूध, दही, घी, शहद और चीनी ये पंचामृत हैं । पहले 'दूधसे, फिर दहीसे, फिर घोसे, फिर मधुसे और अन्तमें चीनीसे अभिषेक किया जाता है। इनके पश्चात् केवल जलाभिषेक होता । यदि प्रतिमा मिट्टीकी हो या चित्ररूपमें हो तो उसका अभिषेक नहीं किया जाता । जो पंचामृत से अभिषेक नहीं कर सकते वे जलमें तुलसी के पत्ते डालकर उसीसे अभिषेक करते हैं । अभिषेक के बाद चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्योंसे प्रतिमाका लेपन होता है ।
यदि पुष्प न हों तो फलसे, फल न हो तो पल्लवसे, पल्लव न हो तो जलसे प्रतिमापूजन किया जा सकता है । पुष्पादिके अभाव में सफेद चावलोंसे पूजन करनेका विधान है।" पूजनके बाद आरातिका ( आरती )
१. " तत्र पूजा नाम देवतोद्देशेन द्रव्यत्यागात्मकत्वाद्याग एव ।" - पूजाप्रकाश पृ० १ । २. हिस्ट्री आफ धर्मशास्त्र, पृ० ७२९ ।
३: " प्रतिष्ठित प्रतिमायामा वाहन विसर्जन योरभावेन चतुर्दशोपचारैव पूजा । अथवा वाहनविसर्जनयोः स्थाने मन्त्रपुष्पाअलिदानम् । नूतनप्रतिमायां तु षोडशोपचारैव
पूजा ।"
—संस्कार रत्नमाला, पृ० २७ । ४. “ क्षीरेण पूर्व कुर्वीत दध्ना पश्चात् घृतेन च । मधुना चाथ खण्डेन क्रमो ज्ञेयो विचक्षणैः ॥ " — पूजाप्रकाश पृ० ३४ में उद्धृत ५. " पुष्पा भावे फलं शस्तं फलाभावे तु पल्लवम् । पल्लवस्याप्यभावे तु सलिलं प्राह्ममिष्यते । पुष्पाद्यसंभवेदेवं पूजयेतितण्डुलैः । " - पूजाप्रकाश पृ० ६५ में उद्धत ।