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प्रस्तावना
कर कहते हैं कि जो बिम्बपत्रके प्रमाण जिनमन्दिर बनाकर उसमें जो बरावर जिनप्रतिमाको भक्तिपूर्वक स्थापना करते हैं उनके पुण्यका वर्णन सरस्वती भी नहीं कर सकती, फिर जो बड़ा मन्दिर और बड़ी प्रतिमा बनवायें उनका तो कहना ही क्या है। आचार्य वसुनन्दिने ( बारहवीं शती) पद्मनन्दिसे भी आगे कहा, जो कुन्युम्भरिके पत्र बराबर जिनमन्दिर बनवाकर उसमें सरसोंके बराबर भी जिनप्रतिमाको स्थापना करता है वह मनुष्य तीर्थ करपदके योग्य पुण्यबन्ध करता है।
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आचार्य पद्मनन्दि और वसुनन्दिने जिनपूजा वगैरहका भी वर्णन किया है, उनका महत्व भी बतलाया हैं और उसपर जोर भी दिया है। सागारधर्मामृतमें पं० आशाधरजीने भी संक्षेपमें जिनमन्दिरोंकी आवश्यकता और जिनपूजा की विधि बतलायी है तथा जिनबिम्ब, जिनालयवसतिका और स्वाध्यायशाला बनवाना पाक्षिक श्रावकों का कर्तव्य बतलाया है। सावयधम्मदोहा में तो जिनबिम्ब और जिनमन्दिरके निर्माणके साथ ही साथ जिनमन्दिर में सफेदी करानेका, जिनेन्द्रदेवपर चन्द्रौआ चढ़ानेका, उनकी आरती करनेका और उन्हें तिलक चढ़ानेका भी माहात्म्य बतलाया है । लाटोसंहिता में भी, जिनमन्दिर, अर्हन्त और सिद्धोंकी प्रतिमाएँ तथा यन्त्र वगैरह बनवानेका विधान किया है और लिखा है 'जिनबिम्ब महोत्सव आदि कराने में कभी शिथिलता नहीं करना चाहिए। तत्त्वज्ञोंको तो विशेष रूपसे नित्य नैमितिक महोत्सव करने कराने चाहिए ।
उपर्युक्त साक्ष्यों के आधारपर यह सहज रूपमें कहा जा सकता है कि मूर्तिपूजनकी परम्परा जैनधर्म में बहुत पुराने समय से चली आ रही थी, और उत्तरकालमें तो जिनप्रतिमा और जिनमन्दिरोंका निर्माण बहुतायत से होने लगा । ग्यारहवीं शताब्दी के बादका युग, जिसे 'श्रावकाचार युग' कहना अधिक उपयुक्त होगा, तो जैसे इन प्रवृत्तियोंके चरमोत्कर्षका समय रहा। इसी युगमें प्रतिष्ठापाठों आदिकी रचनाएँ हुई । पूजनसाहित्य भी इस युग में विशेष रूपसे लिखा गया । किन्तु इस सबका तात्पर्य यह नहीं कि पूजाप्रतिष्ठा की ये प्रवृत्तियां पहले न थीं । जैन आचारसंहिताका ये सदासे अविभाज्य अंग रही हैं । अन्तर केवल इतना है कि प्राचीन समय में मुनियों और आचार्योंका बाहुल्य होनेसे श्रावक उनके सान्निध्यका लाभ उठा लेते थे और वही धर्मकी स्थिरताका एक बड़ा आधार था । बादके युगमें मुनिसंघोंकी विरलता होती. गयी और श्रावकोंको धर्म में स्थिर करनेके लिए मन्दिर आदिके निर्माणपर अधिक जोर दिया गया ।
पूजन : एक प्रश्न और उसका समाधान
स्वामी विद्यानन्दिने अपने पात्रकेसरिस्तोत्र में लिखा है कि भगवन् ! जिनबिम्बका निर्माण, दान और पूजन आदि क्रियाएं, जो कि अनेक प्राणियोंके मरण और पीड़ाको कारण हैं, आपने उनका उपदेश नहीं किया । किन्तु भक्तिवश श्रावकोंने हो स्वयं उन्हें किया है ।
इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि पूजनका उपदेश भगवान्ने तो दिया नहीं, वह तो
१. "बिम्वादलोन्नतियत्रोन्नतिमेव मक्त्या ये कारयन्ति जिनसा जिनाकृतिं वा ।
पुण्यं तदीयमिह वागपि नैत्र शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कायितुर्द्वयस्य ॥” – पद्म० पंच०, श्लो० २२ । २. "कुंथुमरिदलमेत्ते जिणभवणे जो ठवेइ जिणपडिमं ।
सरिसवमेत्तं पि लहइ सो णरो तित्थयरं पुण्णं ।। " - वसु० श्राव० श्लो० ४८१ ।
३. “जिणभवणई कारावियदं लब्भइ सग्गि विभाणु। 'अह टिकई आराहणहं होइ समाहिहि ठाणु ॥ जो धवलावइ जिण भवणु तसु जसु कहिं पि ण माइ ।
ससिकरणियरु सरयमिलिउ जगु धवलणहं वसाइ ||" -साव० दो० १९३-१९४ ।
४. “ विमोक्ष खादानपरिपूजनाद्यात्मिकाः, क्रिया बहुविधासुमृन्मरणपीडनाहेतवः ।
स्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिताः किन्तु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्टिताः श्रावकैः ॥ ३७॥”
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